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* गीता दर्शन भाग-4
अन्यथा वही फांसी बन जाती है। और मन के अनुभव पर कभी मत कहना दूसरे को गलत, क्योंकि दूसरे का मन जो जानता है, वह भी सही हो सकता है।
धर्मों में विवाद नहीं है; हो नहीं सकता; सब विवाद दर्शनों का है और प्रत्येक धर्म जन्मता तो उनके बीच है, जो पंडित नहीं होते, लेकिन हाथ उनके पड़ जाता है अंततः, जो पंडित होते हैं। यह दुर्भाग्य है, लेकिन यह भी नियम है।
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जब भी धर्म का जन्म होता है, तो वह उस आदमी में होता है, जिसका मन खो गया होता है; तब वह पूर्ण को जानता है। लेकिन जब लोग उससे समझते हैं, तो वे मन से ही समझेंगे; कोई और उपाय नहीं है। अगर मैं कोई ऐसी बात आपसे कहूं, जो मैंने मन के पार जानी हो, तो आपसे जब कहूंगा और आप जब सुनेंगे, तो आप मन से ही सुनेंगे। और मन से सुनकर अगर आपने उसे मान लिया या न माना, आपने कोई भी नतीजा लिया, तो वह नतीजा आंशिक होगा। और उस नतीजे पर ही कल मेरी बात के आधार पर कोई निर्माण हो सकता है, कोई शास्त्र बन सकता है, कोई धर्म बन सकता है। । वह धर्म अधूरा होगा और झूठा हो जाएगा। धर्म जब जन्मते हैं, तो पूर्ण होते हैं— महावीर में, कृष्ण में, या बुद्ध में, या मोहम्मद में। और जब चलते हैं, तो अपूर्ण हो जाते हैं। चलते हैं मन के सहारे; अधूरे हो जाते हैं। और अधूरे होते ही दूसरे अधूरे वक्तव्यों से संघर्ष शुरू हो जाता है। मोहम्मद का और महावीर का कोई संघर्ष नहीं है। बुद्ध का और कृष्ण का कोई संघर्ष नहीं है। लेकिन हिंदू और मुसलमान का है, जैन और बौद्ध का है। होगा ही ।
जहां मन मिट गया है, वहां सभी वक्तव्यों के भीतर जो छिपा है, वह दिखाई पड़ जाता है । और जहां मन है, वहां एक वक्तव्य सही और शेष गलत मालूम पड़ते हैं। यह मन की पहली अड़चन है कि मन बांटकर देखता है।
दूसरी अड़चन, जो इससे भी कठिन है, और वह यह है कि मन विरोध में बांटकर देखता है। मन जब भी दो चीजों को तोड़ता है,
दोनों के बीच विरोध देखता है। जैसे जीवन है। अगर जीवन को मन देखेगा, तो उसे जीवन में दो हिस्से दिखाई पड़ेंगे, जन्म और मृत्यु । और मन कैसे माने कि जन्म और मृत्यु एक ही हैं? बिलकुल उलटे हैं। एक कैसे हो सकते हैं? कहां जन्म और कहां मृत्यु ? जीवन को बांटेगा मन, तो दो हिस्से दिखाई पड़ेंगे, जन्म का और मृत्यु का। और दोनों उलटे मालूम पड़ेंगे; कंट्राडिक्टरी; एक-दूसरे
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| के विरोध में। जब भी मन बांटेगा, तो विरोध में बांटेगा; और जीवन अविरोधी है, नान - कंट्राडिक्टरी है। जीवन में कोई तकलीफ ही नहीं | है। जन्म और मृत्यु, जीवन में एक ही चीज के दो नाम हैं, एक ही चीज का विस्तार है। जो जन्म की तरह शुरू होता है, वही मृत्यु की | तरह पूर्ण होता है। अगर जन्म प्रारंभ है जीवन का, तो मृत्यु उसकी पूर्णता है।
जन्म और मृत्यु में अगर मन को हम बीच में न लाएं, तो कोई भी विरोध नहीं है। लेकिन मन को हम बीच में कैसे न लाएं! हमारे पास और कोई उपाय नहीं है। मन ही हमारे पास उपाय है जानने के लिए। जैसे ही मन को हम लाते हैं, मन जीवन को दो हिस्सों में तोड़ देता है; एक हिस्सा जन्म हो जाता है, एक हिस्सा मृत्यु हो जाती है।
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यह मन सभी जगह चीजों को दो में तोड़ देता है। यह कहता है, यह आदमी अच्छा है, वह आदमी बुरा है। सच्चाई बिलकुल उलटी है; अच्छाई और बुराई एक ही चीज का विस्तार है। तो जब हम कहते हैं, यह आदमी अच्छा है और वह आदमी बुरा है; या हम कहते हैं, यह बात अच्छी है और वह बात बुरी है; तब हमने तोड़ दिया। बड़ी अड़चन होगी यह मानने में कि अच्छाई और बुराई एक ही | चीज का विस्तार है। यह मानने में बड़ी कठिनाई होगी कि साधु और असाधु एक ही चीज के दो छोर हैं। यह मानने में बड़ी कठिनाई होगी कि राम और रावण दुश्मन हैं हमारे मन के कारण; अन्यथा अस्तित्व में एक ही लीला के दो छोर हैं।
इसे ऐसा समझें, क्या रामायण संभव है रावण के बिना ? अगर संभव हो, तो रावण को विदा करके सोचने की कोशिश करें। रावण | को हटा दें राम की कथा से। और तब आप पाएंगे कि राम के भी | प्राण निकल गए। राम के प्राण भी रावण से जुड़े हैं। इधर रावण गिरेगा, तो राम भी गिर जाएंगे। राम भी रावण के बिना खड़े नहीं रह सकते।
और अगर इतना गहरा जोड़ है, तो विपरीत कहना नासमझी है। अगर इतना गहरा जोड़ है कि राम का अस्तित्व नहीं हो सकता रावण के बिना, न रावण का अस्तित्व हो सकता है राम के बिना, | तो दोनों को दुश्मन देखना हमारे मन की भूल है। एक खेल के दोनों हिस्से हैं, जिसमें दोनों अनिवार्य हैं; जिनमें एक भी छोड़ा नहीं
जा सकता।
लेकिन मन तो तोड़कर ही देखेगा। मन कैसे मान सकता है कि राम और रावण एक हैं! कभी भी नहीं मान सकता। मन कहेगा, | कैसी बात कर रहे हो ? कहां राम, कहां रावण! विपरीत हैं; तभी
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