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________________ * जीवन के ऐक्य का बोध-अ-मन में * तो इतना संघर्ष है दोनों में, तभी तो युद्ध है। तब फिर ऐसा देखें; जिंदगी हमारे गणित को नहीं मानती। जिंदगी हमारे गणित के एक को हटा दें। सब हिसाब को अस्तव्यस्त कर देती है। राम इसको भलीभांति अगर सच में रावण राम के दुश्मन हैं, तो रावण अगर न रहे, तो जानते हैं। राम को यह भलीभांति पता है। इसलिए संघर्ष गहरा है, राम और भी खिलकर प्रकट होना चाहिए। अगर रावण सच में ही लेकिन द्वेष कहीं भी नहीं है। युद्ध प्रगाढ़ है, लेकिन खेल से ज्यादा राम का दुश्मन है, तो रावण के हटते ही राम की प्रतिभा और खिल महत्ता नहीं है। राम को भलीभांति पता है कि वह जो दूसरा छोर है, जानी चाहिए। अगर रावण विरोध में है, तो रावण के हटते ही राम | वह अलग नहीं है। इसलिए लक्ष्मण को भेज देते हैं रावण के पास के फूल की सब पंखड़ियां पूरी खिल जानी चाहिए। क्योंकि विरोधी | ज्ञान जानने के लिए। रोक रहा था खिलावट को; विरोधी दुश्मन था; अड़चन डाल रहा | राम को भी पता है कि मेरा भी जो अनुभव है, वह एक छोर का था; अड़चन हट गई, अब राम को पूरा खिलना चाहिए। | है; रावण का भी जो अनुभव है, वह दूसरे छोर का है। और ज्ञान लेकिन राम को खिलना तो बहुत दूर, रावण को अगर बिलकुल पूरा लक्ष्मण का तभी होगा, जब वह दोनों छोरों को संयुक्त रूप से हटा दें, तो राम का आपको पता ही नहीं चलेगा कि वह कभी हुए जान ले। राम को तो उसने जाना है, उसे रावण के पास भेजते हैं हैं! उनका पता ही नहीं चलेगा। और यह बात दोनों तरफ लागू है। | अंत में कि तू उससे भी शिक्षा ले ले; वह महापंडित है, वह राम के बिना रावण को भी होने का कोई उपाय नहीं है। अगर यह | | महाज्ञानी है; उसका भी अपना अनुभव है; उसकी भी अपनी यात्रा ऐसा है, तो फिर हमारे देखने में कहीं भूल है। वह जो हम शत्रुता है; उसने भी कुछ जाना है दूसरे किनारे से, जो कि अनूठा होगा देखते हैं, वह हमारी भूल है। कहना चाहिए, एक ही चीज के दो छोर | | और तू अधूरा रह जाएगा। तू राम को ही मत जान, रावण को भी हैं। और एक भी छोर दूसरे के बिना नहीं हो सकता। अनिवार्य छोर! | जान ले। और दोनों को जानकर तू ज्यादा पूर्ण होगा; अनुभव ज्यादा 'तो जब भी राम होंगे, तब रावण होगा। और जब भी रावण समद्ध, ज्यादा सघन होगा। होगा, तब राम होंगे। यह युद्ध नहीं है; यह युद्ध हमारे मन की प्रिज्म ___ और विपरीत जहां मिल जाते हैं, वहां अनुभव पूर्ण हो जाता है। में से गुजरकर दिखाई पड़ता है। जब मन को कोई हटा देगा, तो लेकिन हमारा मन? हमारा मन ऐसा है कि राम की पूजा करेंगे और पता चलेगा, एक ही ऊर्जा, एक ही शक्ति दोनों तरफ है। उस शक्ति रावण को आग लगाएंगे। यह हमारा मन है! मन हमारा ऐसा है कि के बहाव के लिए दोनों उतने ही जरूरी हैं। हम एक को पूजेंगे, दूसरे की निंदा करेंगे; एक को मित्र मानेंगे, ऐसा समझें कि गंगा बहती है दो किनारों के बीच। और हम मान दूसरे को शत्रु मानेंगे। ले सकते हैं कि दोनों किनारे अलग हैं। एक किनारे को हटा दें और | (किसी ने बीच से उठकर मन की परिभाषा पूछी।) फिर गंगा को बहाकर देखें, तब पता चलेगा कि वे दोनों किनारे पूछ रहे हैं एक मित्र कि मन की परिभाषा क्या है? तो मन की अलग न थे। और हमें ऐसा भी लग सकता है कि एक किनारे से | थोड़ी परिभाषा समझें। अब देखें, जो मैं कह रहा था, पूछते हैं, मन दूसरे किनारे की प्रतिद्वंद्विता है, कांपिटीशन है; और एक किनारा की परिभाषा कैसे है? दूसरे से मुठभेड़ ले रहा है। और हमें ऐसा भी लग सकता है कि लेकिन आप उनकी तरफ मत देखें! आप ऐसे देख रहे हैं, जैसे एक किनारा गंगा को अपनी तरफ खींचने की कोशिश में लगा है। | उन्होंने बड़ी शत्रुता से पूछा है; वहीं भूल हो जाती है। आवाज जरा लेकिन ध्यान रहे, गंगा उन दोनों किनारों के बीच ही चलती है। वे | जोर की है, लेकिन मित्र की है; ऐसा क्या परेशान होना! उनकी दोनों किनारे गंगा के ही दो छोर हैं। और एक को भी हटाकर दूसरा तरफ मत देखें। नहीं बचेगा! मन की परिभाषा; मन का अर्थ होता है, मनन, विचार, चिंतन; कठिन होगी यह बात; और हमारी बुद्धि को अति कठिन पड़ेगी, जो दिखाई पड़े, उसके साथ चिंतन की धारा को जोड़ना। समझें; क्योंकि हमें सदा तोड़कर देखने में आसानी हो जाती है। राम को | एक फूल मुझे दिखाई पड़ता है। जहां तक दिखाई पड़ता है, वहां अच्छा बना लेते हैं, रावण को बुरा बना देते हैं; गणित साफ हो | | तक मन नहीं आता; लेकिन जैसे ही मैं कहता हूं, सुंदर है, मन आ जाता है। रावण छोड़ने जैसा है, राम पूजने जैसे हैं। रावण बुरा है, | गया; जैसे ही मैं कहता हूं, सुंदर नहीं है, मन आ गया; जैसे ही मैं राम अच्छे हैं। बंटाव सीधा हो गया, गणित साफ हो गया। | कहता हूं, बहुत प्यारा है, मन आ गया; जैसे ही मैं कहता हूं, बेकार 275
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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