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________________ * गीता दर्शन भाग-42 है, मन आ गया। जब तक दर्शन है, तब तक मन नहीं है। जैसे ही को तोड़कर देखती है, क्योंकि मन से निर्मित है। और मन भी चीजों दर्शन के साथ शब्द और विचार जुड़ते हैं, मन की गति शुरू हो गई। को तोड़कर देखता है, क्योंकि भाषा के पार मन का कोई अस्तित्व मन का अर्थ है, विचार को, शब्द को पैदा करने वाला यंत्र। मन नहीं है। यही मैं कह रहा था कि हम जहां भी कुछ देखते हैं, वहां का अर्थ है, विचार को जन्म देने वाला स्रोत। फूल को अगर मैं तत्काल विपरीत का अनुभव शुरू हो जाता है। अगर हम सौंदर्य देखता रहूं और सोचूं न, तो मेरी आत्मा और फूल के बीच मिलन | देखते हैं, तो कुरूप का बोध तत्काल शुरू हो जाता है। क्या आप होगा। अगर सोचूं, तो मेरी आत्मा और फूल के बीच में एक नई | ऐसा कर सकते हैं कि किसी चीज को सुंदर कहें बिना किसी चीज विचारों की श्रृंखला खड़ी हो जाएगी, शब्दों का एक जाल खड़ा हो | को असुंदर कहे? जाएगा। तब मैं फूल को न देख पाऊंगा सीधा; तब इन शब्दों के बुद्ध से महाकाश्यप ने पूछा है। महाकाश्यप एक दिन सुबह बुद्ध पार से, इन शब्दों के भीतर से फूल को देखूगा। तब फूल के संबंध के पास पहुंचा है, उनका एक प्रमुख शिष्य है। सूरज उग रहा है, में जो भी निर्णय मैं लूंगा, वह फूल के संबंध में नहीं, मेरे मन के पक्षी गीत गा रहे हैं और महाकाश्यप बुद्ध से पूछता है कि यह जो संबंध में है। क्योंकि अगर मैं बचपन से ऐसे घर में बड़ा हुआ हूं, | चारों तरफ फैला है, क्या यह सुंदर नहीं है? जहां गुलाब को सुंदर समझा जाता है, अगर मुझे बचपन से | बुद्ध चुप रह जाते हैं। महाकाश्यप की तरफ देखते हैं, मुस्कुराते सिखाया गया है कि गुलाब सुंदर है, तो मेरे मन में विचारों की एक | हैं, लेकिन बोलते नहीं। महाकाश्यप फिर पूछता है कि क्या मेरे श्रृंखला है गुलाब के संबंध में, सौंदर्य की। अब अगर गुलाब का प्रश्न में कोई असंगति है? आप उत्तर क्यों नहीं देते हैं? फूल मैंने देखा और मेरे मन की धारा खड़ी हुई, मेरे विचार खड़े | बुद्ध फिर चारों तरफ देखते हैं, फिर महाकाश्यप की तरफ देखते हुए, और उन्होंने कहा, फूल सुंदर है, तो यह मेरी प्रतीति न हुई, यह हैं, मुस्कुराते हैं और चुप रह जाते हैं। महाकाश्यप तीसरी बार पूछता मेरे मन का वक्तव्य हुआ। और मन का वक्तव्य शब्दों का वक्तव्य है कि इतना ही कह दें कि आप जवाब न देंगे। है। निःशब्द जब कोई होता है, तो मन खो जाता है। बुद्ध फिर चारों तरफ देखते हैं और चुप रह जाते हैं। महाकाश्यप इसका अर्थ यह हुआ कि शब्दों की हमारे भीतर जो प्रक्रिया है, || | से वे तब कहते हैं कि तू जो पूछ रहा है, उससे तू मुझे बड़ी मुश्किल दिवेरी प्रोसेस आफ लैंग्वेज इज़ माइंड। हमारे शब्दों की जो प्रक्रिया | में डाल रहा है। मुश्किल में इसलिए डाल रहा है कि अगर मैं कहूं, है, हमारे शब्दों का जो संग्रह है, हमारे शब्दों का जो जाल है, वह यह सब सुंदर है, तो मैं किसको कुरूप कहूं? क्योंकि जब भी सुंदर हमारा मन है। मन हमारे समस्त शब्द, हमारी समस्त भाषा, हमारे का उपयोग करें, तो कुरूप की धारणा सुनिश्चित हो जाती है। समस्त सोचने की क्षमता का इकट्ठा जोड़ है। और बुद्ध ने कहा कि अब मुझे न कुछ कुरूप रहा है और न कुछ आदमी गैर-मन की हालत में दो तरह से हो सकता है। बेहोश सुंदर रहा है; जो जैसा है, वैसा ही रह गया है। यह मन के बाहर से पड़ा हो, तो भी गैर-मन की हालत में हो जाता है। यह मन से नीचे देखा गया जगत है। कांटा कांटा है, फूल फूल है; गुलाब गुलाब की अवस्था है। आदमी समाधि में हो, तो भी मन के बाहर हो जाता | है, चंपा चंपा है। न कुछ सुंदर है, न कुछ कुरूप है। जो जैसा है, है। यह मन से ऊपर की अवस्था है। वैसा है। इसलिए ऋषियों ने कहा है कि प्रगाढ़ निद्रा में भी आदमी समाधि बुद्ध ने कहा, जो जैसा है, वह मुझे दिखाई पड़ता है। यह सुंदर जैसी अवस्था में पहुंच जाता है। एक ही लक्षण समान है, मन नहीं है या कुरूप, यह मैं कैसे कहूं? क्योंकि जिस मन से मैं बांटता था, होता। प्रगाढ़ निद्रा में भी मन नहीं होता, क्योंकि विचार खो जाता वह खो गया है। मन जो मेरे पास था, जिससे मैं तौलता था, वह है। लेकिन विचार तो खो जाता है, होश भी खो जाता है। समाधि खो गया है। में भी प्रगाढ़ निद्रा की घटना घटती है, मन खो जाता है; लेकिन | समझें, एक तराजू है हमारे पास; उससे हम तौल लेते हैं, होश पूरा होता है। कौन-सी चीज वजनी है, कौन-सी चीज गैर-वजनी है। तराजू खो मन हमारे चिंतन का यंत्र है। और इसलिए जितना ही ज्यादा हम | गया। फिर कोई मुझसे पूछता है कि यह ज्यादा वजनी है या कम इस चिंतन के यंत्र का उपयोग करके जगत को देखते हैं, उतना ही | | वजनी है ? मैं अपने हाथ पर रखकर थोड़ा अंदाज कर सकता हूं; जगत बंट जाता है। इस बंटाव में कई कारण हैं। हमारी भाषा चीजों हाथ से तराजू का काम ले सकता हूं। यद्यपि उतना सुनिश्चित तो 276
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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