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* जीवन के ऐक्य का बोध-अ-मन में *
गया है।
नहीं होगा, तोला-तोला, रत्ती-रत्ती नहीं बता सगा; लेकिन फिर | | मालिक हो जाएं, तो आप जगत को दूसरे ढंग से देखना शुरू करेंगे। भी कह सकता हूं कि यह सेरभर है, यह तीन पाव है! साफ तो नहीं ___ यह मैंने क्यों कहा? यह मैंने इसलिए कहा कि कृष्ण का यह जो होगा उतना।
सूत्र है, यह आपकी तभी समझ में आ सकेगा, जब आप मन और लेकिन मेरा हाथ भी टूट गया; अब मेरे पास कोई भी उपाय नहीं | | गैर-मन, दो ढंग से जगत को देखने की व्यवस्था को समझने में है, जिससे मैं इसे नाप लूं। तो अब मैं आंख से ही देखकर अंदाज समर्थ हो जाएं। लगाऊंगा कि यह थोड़ा ज्यादा मालूम पड़ता है, यह थोड़ा कम | कृष्ण कहते हैं, मैं ही सूर्यरूप हुआ तपता हूं और मैं ही वर्षा को मालूम पड़ता है। मात्रा देखकर कहूंगा। भूल अब ज्यादा होगी। । भी आकर्षित करता हूं। मैं ही बरसाता हूं, मैं ही वर्षा हूं।
लेकिन मेरी आंख भी चली गईं। अब मेरे पास कोई भी उपाय | । इसे हम ऐसा समझें, आग को और जल को हम सदा विपरीत नहीं है कि मैं कहूं कि कौन ज्यादा है, कौन कम है! हाथ नहीं, तराजू | | देखते हैं। अगर आग लगी हो, तो हम पानी से उसे बुझा देते हैं। नहीं, आंख नहीं। अब तो मैं यही कहूंगा कि यह यह है और वह | और अगर हम पानी में आग लगाना चाहें, तो कोई उपाय नहीं है। वह है। लेकिन मेरे पास वह तौलने का यंत्र नहीं है, जिससे मैं तौल | | आग और पानी हमारे लिए विपरीत हैं। आग की पानी से क्या लेता, बांट लेता, कौन कम है, कौन ज्यादा है।
मैत्री? पानी दुश्मन है। बुद्ध ने कहा, जो है, वह है। सूरज उग रहा है। फूल खिल रहे | | पर कृष्ण कहते हैं, मैं ही हूं आग और मैं ही हूं जल; मैं ही हैं। पक्षी गीत गा रहे हैं। और मैं यहां बैठा सुन रहा हूं। लेकिन वह | भभकता हूं, मैं ही बुझाता हूं; मैं ही हूं सूर्य, जो तपता है; और मैं जो कह सकता था सुंदर और असुंदर, वह मौजूद नहीं है। वह खो | | ही हूं वह वर्षा, जो आकर्षित होती है सूर्य से।
अगर हम मन का हिसाब छोड़ दें और जरा अस्तित्व को देखें, · ध्यान का अर्थ है, मन का खो जाना। ध्यान का अर्थ है, भाषा | | तो पता चलेगा, सूर्य ही तो खींचता है सागर से पानी को, सूर्य ही का, शब्द का, विचार का भीतर से तिरोहित हो जाना। तो बनाता है बादलों को, सूर्य ही तो बरसाता है। तो आग और पानी
इसका यह अर्थ भी नहीं है कि जो ध्यान में प्रवेश करेगा, वह | | में जो वैमनस्य हमें दिखाई पड़ता है, वह कहीं न कहीं हमारे मन के बोल न सकेगा। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि जो ध्यान में प्रवेश कारण ही होगा! वह वैमनस्य राम और रावण जैसा ही है। सूर्य के करेगा, वह शब्द का उपयोग न कर सकेगा। सच तो यह है कि वही | | बिना पानी नहीं हो सकेगा। पानी के बिना सूर्य नहीं हो सकेगा। वे उपयोग कर सकेगा। लेकिन तब उपयोग उपयोग होगा; वह | | कहीं बहुत गहरे में संयुक्त और इकट्ठे हैं। मालिक होगा। बुद्ध भी बोल रहे हैं; वे कह रहे हैं कि मेरा मन खो उनके संयुक्त होने की खबर वे देते हैं और कहते हैं, हे अर्जुन, गया। शब्द का उपयोग हो रहा है, भाषा का उपयोग हो रहा है, मैं ही अमृत हूं और मैं ही मृत्यु। लेकिन बस उपयोग की तरह। जैसे आदमी जब चलता है, तो पैर - दुनिया में ईश्वर के संबंध में जिन लोगों ने भी सोचा है, उनमें का उपयोग करता है; जब बैठ जाता है, तो पैर का उपयोग बंद कर सिर्फ हिंदू दृष्टि ईश्वर के साथ मृत्यु को भी जोड़ती है; बाकी कोई देता है।
| भी नहीं जोड़ता है। पृथ्वी पर जितनी चिंतनाएं हैं, वे सभी कहती हैं लेकिन आपका मन पागल है; आप नहीं भी काम लेना चाहते कि ईश्वर जीवन है, लेकिन कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं हैं उससे, वह काम करता ही चला जाता है। आप कहते हैं, चुप हो करता कि ईश्वर मृत्यु भी है। उसका कारण है। वह जो हमारे मन जाओ; वह चुप होता ही नहीं! आप कहते हैं, बंद करो, मुझे सोना का विभाजन है, उसमें हम कैसे दोनों कहें? कैसे? ईश्वर दोनों कैसे है; और वह बंद नहीं होता। और आप कहते हैं, ठहर जाओ, यह | | हो सकता है? बात मुझे सोचनी ही नहीं है; और वह सोचे चला जाता है। और | | लेकिन ईश्वर दोनों है; क्योंकि जीवन दोनों है। हमारे तर्क में न आप बिलकुल बेबस हैं।
आए, तो हमें तर्क छोड़कर देखना चाहिए। लेकिन हमारे तर्क के यह आपकी विवशता, यह आपकी बेचैनी, यह आपकी | | पीछे जीवन चलने को आबद्ध नहीं है। अगर हम पूछे किसी और मजबूरी—आपकी आत्मा की मालकियत खो गई है और मन | | से, तो वह कहेगा, ईश्वर जीवन है। लेकिन ईश्वर मृत्यु है, यह आपका मालिक है। यह मालकियत मिटे, मन नीचे उतरे, आप | कहने में घबड़ाहट होगी उसे। क्योंकि मृत्यु को हम सोचते हैं, वह
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