SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन - उत्तरायण पथ * मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं। अग्नि, ज्योति, दिन और शुक्ल पक्ष चार शब्दों का प्रयोग किया है । न अग्नि से मतलब है, न ज्योति से, न दिन से, न शुक्ल पक्ष से, फिर भी मतलब है, क्योंकि वे प्रतीक आपको क्रमशः कुछ समझाने में सहयोगी होंगे। 1 अग्नि में ईंधन भी होगा, अग्नि भी होगी, लेकिन उत्ताप भी होगा । ज्योति में ईंधन नहीं - यह प्रतीक है — ईंधन नहीं, धुआं नहीं, उत्ताप भी कम हो जाएगा। अग्नि के आटिक होती है, उसकी लपटें कहीं भी दौड़ती रहती हैं। ज्योति में लपट थिर हो जाएगी और एक बन जाएगी। अग्नि अनेक लपटों वाली होगी, ज्योति एक लपट वाली होगी और एक यात्रा पर संलग्न हो जाएगी। दिन! दिन और भी उदार हो गया। अब लपट भी नहीं है, केवल प्रकाश है। अगर दिन को ठीक पहचानना हो, तो उस समय को दिन समझें, जब सुबह रात जा चुकी होती है और सूरज नहीं निकला होता है, तब जो आलोक फैला होता है चारों ओर, वही दिन है। फिर तो सूरज आ जाता सूरज के आने से गहन अग्नि का प्रभाव शुरू हो जाता है, उत्ताप शुरू हो जाता है। सुबह जब भोर के समय में जब रात जा चुकी और दिन, सूर्य वाला दिन अभी नहीं आया, तो बीच में जो एक संध्या का क्षण है, जब सिर्फ प्रकाश होता है, जिस प्रकाश में उत्ताप नहीं होता, वही दिवस है, वही दिन है। ज्योति में ताप तो होगा दिन में ताप भी खो जाता है। वह भी प्रकाश का ही एक रूप है, लेकिन क्रमशः प्रकाश जो है नान-वायलेंट होता चला जाता है, अहिंसक होता चला जाता है। लेकिन उसमें भी पूरी शीतलता नहीं होती, क्योंकि सूरज कहीं निकट ही छिपा होता है और जल्दी ही आने के करीब होता है। सच तो यह है कि वह होता ही इसलिए है कि सूरज आ चुका होता है क्षितिज के बिलकुल निकट; प्रकट नहीं हुआ होता, लेकिन उसकी मौजूदगी इतने निकट होती है, इसलिए प्रकाश फैल जाता है। तो कहीं थोड़ा-सा ताप तो उसमें छिपा ही होगा। वह ताप भी चला जाए, तो फिर शुक्ल पक्ष, जैसी कि चांद की रात होती है। सूरज बहुत दूर है, गर्मी का कोई सवाल नहीं। अब प्रकाश भी है और परम शीतल भी। जो व्यक्ति अपनी ऊर्जा को काम-केंद्र से ऊपर की तरफ यात्रा पर ले जाता है, तो पहला अनुभव उसे अग्नि का होता है। जो व्यक्ति अपनी सेक्स एनर्जी को बायो-एनर्जी को ऊपर की तरफ ले जाता है, पहला अनुभव अग्नि का होता है। वह अनुभव, जस्ट लाइक फायर, बहुत उत्ताप का होता है। काम-केंद्र बिलकुल जल उठता है, लपटें भर जाती हैं। लेकिन अगर वह साहस रखे और जल्दी न करे, और इन लपटों से मुक्त न होना चाहे, क्योंकि मुक्त होने का वह एक ही रास्ता जानता है कि इनको बहिर्गमन कर दे, इनको नीचे की यात्रा पर चला जाने दे। तो पश्चिम में जहां कामवासना के संबंध में कम से कम समझ है और ज्यादा से ज्यादा आकर्षण है, वहां वे समझते हैं कि कामवासना का उपयोग वैसा ही है, जैसे कि कोई आदमी छींक का उपयोग करता है। बस, इससे ज्यादा नहीं। समथिंग लाइक ए रिलीफ। कुछ भीतर बेचैनी है, उसको फेंक देना है बाहर, छुटकारा हो । काम ऊर्जा का कोई विधायक अर्थ भी हो सकता है, काम ऊर्जा रूपांतरित हो सकती है, या काम ऊर्जा परम अनुभव की तरफ ले जा सकती है, इसकी पश्चिम में कोई दृष्टि नहीं है। पूरब में भी वह बात फैलती चली जाती है। लोग कामवासना को भी ऐसा ही समझते हैं कि जैसे शरीर से और मल फेंक देने हैं, वैसे ही कामवासना भी शरीर की शुद्धि का एक उपाय है। शरीर के हल्के | कर लेने का, तनाव को विसर्जित कर देने का; एक रिलीफ, छींक जैसे आ जाए, बस ऐसे। अगर जल्दी न की और काम-केंद्र पर जब शक्ति ज्यादा इकट्ठी होती है, तो अग्नि बढ़नी शुरू होती है, क्योंकि ऊर्जा जो काम-केंद्र पर इकट्ठी होती है, वह बहुत संक्षिप्त रूप में सूर्य से ही उपलब्ध हुई है। और एक छोटा-सा सूर्य सेक्स सेंटर पर निर्मित हो जाता है, एक बहुत छोटा बिंदु गहन अग्नि का। अगर जल्दी की, तो वह नीचे बिखर जाता है । अगर जल्दी न की, उसे सहने की हिम्मत रखी, | और राजी रहे कि जो कुछ भी हो, लेकिन यात्रा ऊपर की ही करनी है और इस ऊर्जा को ऊपर ही ले जाना है, और ऊपर, और ऊपर, तो बहुत शीघ्र वह जो सूर्य की तरह गोल बिंदु था, एक लपट बन जाता है। वह जो अग्नि थी, वह एक लपट बन जाती है, एक ज्योति, जैसे दीए की ज्योति ऊपर की तरफ भागती हो, वैसी ज्योति बन जाती है। इस ज्योति के बनते ही परम आनंद अनुभव होता है, क्योंकि ताप कम हो जाता है। दहकता अंगारा पिघल जाता है और ज्योति बन जाता है। लेकिन इस ज्योति में भी ताप तो है ही, इस ज्योति में भी हलन चलन तो है ही, मूवमेंट तो है ही, चंचलता तो है ही । और | कोई भी हवा का झोंका, वासना का तीव्र झोंका हो, तो इस ज्योति को भी नीचे ले जा सकता है। अगर और संयम रखा और धैर्य रखा, 133
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy