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________________ * गीता दर्शन भाग-4 तो यह ज्योति दिन की तरह हो जाती है। जैसे सुबह सूरज नहीं | | में भरा होता है, तो ऑन हीट, तप्त होता है। निकला, रात जा चुकी, तारे छिप गए और आकाश में भी सूरज का तो जब आप कामवासना से भरते हैं, तो पूरा शरीर तप्त हो जाता कोई पता नहीं, और दिग-दिगंत सिर्फ सुबह के प्रकाश से भर गए है। सारा शरीर ईंधन बन जाता है। पसीना आ जाता है, हृदय की हों, बहुत आलोक से। जरा भी उत्ताप नहीं। यह लपट बहुत शीघ्र | धड़कनें बढ़ जाती हैं। श्वास गरम हो जाती है, शरीर से बदबू ही जैसे और ऊपर उठती है. आलोक बन जाती है। निकलनी शुरू हो जाती है। सब भीतर आग पर जाता है। लेकिन अभी फिर भी इसमें लपट का थोड़ा-सा हिस्सा है। अभी भी, दिन से भी वापस गिरा जा सकता है, क्योंकि ताप ज्योति ही बिखरकर बनती है आलोक, तो ज्योति के कण इसमें अभी भी बिखर गया है, लेकिन मौजूद है; डिफ्यूज्ड है, लेकिन है; मौजूद होते हैं। इसमें थोड़ा उत्ताप अभी भी है। बहुत न्यून, लेकिन | अभी फिर से इकट्ठा होकर वापस लौट सकता है। अगर अभी भी अभी भी। हम इतना ही कह सकते हैं कि इसमें उत्ताप नहीं है, | | धैर्य रखा, शांति रखी और साधना ऊर्ध्वगमन की जारी रखी, तो निगेटिवली। अभी यह नहीं कह सकते कि यह शीतल हो गया है। अंतिम घटना घटती है। वह ऐसा हो जाता है भीतर प्रकाश, जैसा अभी रूपांतरण पूरा नहीं हुआ। रूपांतरण तो तब पूरा होता है, जब शुक्ल पक्ष में होता है। हम और धैर्य रखते हैं। लेकिन शुक्ल पक्ष क्यों कहा? पूर्णिमा ही कह देते। पूरे पक्ष को और ध्यान रहे, इस तीसरे क्षण में धैर्य की सर्वाधिक जरूरत कहने की क्या जरूरत पड़ी? पड़ती है साधक को। अग्नि को सह लेना उतना कठिन नहीं है। पड़ी, क्योंकि पहले दिन एकम के चांद जैसी ही घटना घटती है। इसलिए कठिन नहीं है कि पीड़ा तो बहुत होती है अग्नि में, लेकिन और जैसे चांद पंद्रह दिनों में पूरा होता है, ऐसे ही पंद्रह स्टेजेज में अग्नि से ऊब पैदा नहीं होती। उसमें बड़ी उत्तेजना है। उत्तेजना के | | यह चौथी घटना पूरी होती है। और जिस दिन पूर्णिमा हो जाती है साथ हम जी सकते हैं ज्यादा। लपट के साथ, ज्योति के साथ भी | भीतर, पूरे चांद की रात जैसी शीतलता हो जाती है। उस क्षण में जी लेना बहुत कठिन नहीं है। उसमें भी चंचलता होगी। और | अगर मृत्यु हो जाए, तो बुद्धत्व प्राप्त होता है, तो ब्रह्म की उपलब्धि चंचलता में मन ज्यादा जी लेता है, क्योंकि बदलाहट बनी रहती है। | | होती है। लेकिन जब दिवस होता है, तीसरी घड़ी आती है और दिन के जैसा बुद्ध के संबंध में कथा है कि उनका जन्म भी पूर्णिमा के दिन प्रकाश रह जाता है, तो बहुत बोर्डम पैदा होती है। इसलिए इस | हुआ। उनको पहली महासमाधि, पहली संबोधि, पहला बुद्धत्व भी तीसरी अवस्था में अक्सर साधक एकदम उदास हो जाता है, पूर्णिमा के दिन मिला। और उनका महापरिनिर्वाण, उनकी मृत्यु भी उदासीन हो जाता है, सब तेजस्विता खो जाती है। पूर्णिमा के दिन हुई। जरूरी नहीं है कि हिस्टारिकली सही हो, अग्नि के क्षण में साधक बहुत तेजस्वी मालूम पड़ता है, अंगार | ऐतिहासिक रूप से जरूरी नहीं है कि सही हो। हो भी सकता है जैसा मालूम पड़ता है। ज्योति के समय वह तेजस्विता कम होती, | संयोग से, लेकिन इसका ऐतिहासिक मूल्य नहीं है। इसका मूल्य लेकिन फिर भी उत्तप्ता होती है, ज्योति होती है। लेकिन तीसरे क्षण | तो इस भीतर के शुक्ल पक्ष के लिए है। इस भीतर के शुक्ल पक्ष में ज्योति भी खो जाती है और एक गहन उदासी भी पकड़ ले सकती के लिए है। है। ऊब भी पकड़ती है, क्योंकि कुछ बदलाहट नहीं होती, कहीं | इस चौथी अवस्था के ठीक वैसे ही पंद्रह टुकड़े किए जा सकते कोई कंपन भी नहीं होता, सिर्फ खाली प्रकाश रह जाता है। इस | हैं, जैसे बढ़ते हुए चांद के होते हैं। और जब कोई व्यक्ति पूर्णिमा समय धैर्य की बहुत जरूरत है। की स्थिति में गुजरता है, पूर्णिमा की स्थिति में विदा होता है इस धैर्य की जरूरत सदा ही अंतिम क्षणों में ज्यादा होती है, क्योंकि | पृथ्वी से, तो उसके लौटने का कोई उपाय नहीं होता। और उत्तरायण मन उसी वक्त ज्यादा बेचैन करता है। अभी भी वापस लौटा जा | के छः माह, वे ही उत्तरायण के छः माह हैं। सकता है, क्योंकि ताप अभी भी मौजूद है, जो फिर से सेंक्स एनर्जी | | इसे एक तरफ से और खयाल में ले लें, क्योंकि ये प्रतीक जटिल बन सकता है। जब तक ताप है, जब तक हीट है...। | हैं, और बहुसूची हैं, और बहुअर्थी हैं। __इसलिए हम जानवरों को तो कहते हैं जब वे कामवासना से भरे मनुष्य के सात चक्र हैं। अगर हम काम-केंद्र को, सेक्स सेंटर होते हैं, तो हम कहते हैं, ऑन हीट। आदमी भी जब कामवासना को एक पहला चक्र मान लें, तो बाकी फिर छः चक्र और रह जाते 134
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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