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________________ * गीता दर्शन भाग-4 मौत करीब आ रही है। उस मौत के भय में ही ईश्वर को माना था। करूंगा, तो छाया भी प्रवेश कर जाएगी। क्योंकि छाया को काटा उस मौत के भय में ही आत्मा को माना था। अब मौत तो चली आ नहीं जा सकता। रही है और भय सामने खड़ा है। अब उस ईश्वर को कैसे माने? दुख सुख की छाया है। जो सुख को मांगता है, वह दुख को भी उस आत्मा को कैसे मानें? मांग रहा है। जानकर नहीं मांगता, क्योंकि कोई दुख को नहीं मांगता मन भय के कारण मान लेता है। या यह भी हो सकता है, मन | है। फिर भी उसे पता नहीं कि वह मांगे या न मांगे, सुख की मांग प्रलोभन के कारण मान ले। क्योंकि भय और प्रलोभन एक ही | में ही दुख को भी निमंत्रण मिल जाता है। दुख पीछे आता है, सुख सिक्के के दो पहलू हैं। मन इसलिए भी मान ले सकता है कि | सामने दिखाई पड़ता है। जब भेंट होती है, तो थोड़ी देर में सुख प्रलोभन है आत्मा को मानने में स्वर्ग का, मोक्ष का; ईश्वर को | बिखर जाता है और दुख की राख हाथ में आ जाती है। मानने में उसके दर्शन का, उसके आनंद का प्रलोभन है। मन बार-बार हमें यह अनुभव होता है। जहां-जहां सुख पर मुट्ठी इसलिए भी मान ले सकता है। बांधते हैं, आखिर में पाते हैं कि दुख हाथ में रह गया। और लेकिन लोभ हो या भय, मन का माना ऊपर के पत्तों पर रखा गया | | जहां-जहां सुख के सपने संजोते हैं, वहीं-वहीं पाते हैं कि सिवाय विश्वास है, नीचे की जीवंत धारा का कोई भी पता नहीं है। इस जीवंत दुख के, दुखस्वप्नों के कुछ हाथ नहीं लगता है। जहां-जहां सुख धारा को हम जान ही तब पाएंगे, जब हम मन के द्वंद्व से हटें। का फूल खोजने जाते हैं, वहां-वहां दुख का कांटा चुभ जाता है। द्वंद्व कोई भी हो-चाहे लोभ का हो, अलोभ का हो; भय का लेकिन फिर भी मन मांगे चला जाता है सुख को। और जितने जोर हो, अभय का हो-द्वंद्व कोई भी हो; सत्य का हो, असत्य का हो; | | से मांगता है, उतने ही जोर से दुख आए चला जाता है। जीवन का हो, मृत्यु का हो; इससे कोई संबंध नहीं है। द्वंद्व की | । इस मांग को हम बदल भी सकते हैं; बदल लेते हैं लोग। फिर भाषा, मन की भाषा है। बड़े मकान बनाने की मांग छोड़ देते हैं। फिर बड़ी दुकान सजाने की कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि वे लोग, जो सकाम साधना करते | | मांग छोड़ देते हैं। फिर बड़ी पद-प्रतिष्ठा, धन की मांग छोड़ देते हैं अर्थात सुख की मांग करते हैं, वे फिर-फिर वापस लौट आते | हैं। लेकिन मन नहीं बदलता। मन फिर स्वर्ग में, परलोक में इन्हीं हैं। क्योंकि सुख की साधना का अर्थ है, दुख को हम अंगीकार सुखों की मांग शुरू कर देता है। करने को राजी नहीं है; दुख को इनकार करते हैं, सुख को अंगीकार तो कृष्ण कहते हैं, और वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर करते हैं। | पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार तीनों द्वंद्व शुरू हो गया। कुछ है, जिसे हम कहते हैं, यह नहीं चाहिए; | | वेदों में कहे हुए सकाम कर्म के शरण हुए और भोगों की कामना और कुछ है, जिसे हम कहते हैं, यह चाहिए। हमने विभाजन कर वाले पुरुष बारंबार आने-जाने को प्राप्त होते हैं। लिया। हमने जीवन को अविभाज्य स्वीकार नहीं किया। यह टोटल | वेद भी सहायता न कर सकेंगे; कृष्ण भी सहायता न कर सकेंगे; एक्सेप्टिबिलिटी नहीं है कि हम समग्र जीवन को स्वीकार करते हैं; कोई भी सहायता न कर सकेगा। अगर आपकी मांग ही गलत है, जीवन जैसा है, हम राजी हैं। इसमें हम भेद करते हैं कि हम जीवन | | तो इस जगत में कोई भी सहायता न कर सकेगा। जगत अपने के इस पहलू से राजी हैं; सुख दे जीवन तो हम राजी हैं, दुख दे तो नियमों से घूमता है। अगर आपने गलत मांगा है, तो गलत आपको हम राजी नहीं है। | मिल जाएगा। लेकिन कठिनाई यह है कि दुख जो है, वह सुख की छाया है। आप कहेंगे, हमने तो सुख मांगा है! लेकिन वह जो सुख की तो मुझसे कोई राजी है, वह कहता है, आओ मेरे घर, लेकिन अपनी | | छाया है, वह किसको मिलेगी? वह भी आपको ही मिलेगी। आप छाया को अपने साथ मत लाना; निमंत्रण है, स्वागत है, लेकिन | पूरा देखें। मन तोड़ देता है, इसलिए सुख अलग मालूम पड़ता है, छाया को छोड़कर आना। दुख अलग मालूम पड़ता है। थोड़ा समझें और मन के बिना जगत ज्यादा से ज्यादा मैं इतना ही कर सकता हूं कि छाया को पीछे को देखें, तब आपको पता चलेगा कि वे दोनों अलग नहीं हैं। मन छिपाकर आ जाऊं; छोड़कर तो कैसे आ सकता हूं! इस भांति आऊं के कारण ही दो मालूम पड़ते हैं; वे एक ही हैं। कि छाया सामने न पड़े, पीछे छिपी रहे। और जब घर में मैं प्रवेश - किस चीज में हमें सुख मिलता है? और जिस चीज में हमें सुख |288
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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