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________________ * वासना और उपासना पहला परिणाम तो यह होता है कि जगत में हमें उस एक के दर्शन जाते हैं। फिर भी हम मानते हैं कि आत्मा है। वह मानना भी हमारे नहीं हो पाते, जो कि सबके भीतर छिपा है। और जब भीतर भी द्वंद्व | मन का एक विचार है। वह भी मन का एक पत्ता है। हो जाता है, तो भीतर भी उस एक के दर्शन नहीं हो पाते हैं, जो | | हम मानते हैं कि आत्मा है। वह भी मन के ही कारण है। इसलिए मौजूद है। वह मानना भी हमारा कभी पूरा नहीं हो पाता। जरा-सी असुविधा तो चाहे कोई बाहर उस एक को देख ले, शर्त एक ही होगी कि आती है और शक पैदा हो जाता है कि है भी, या नहीं है। मन को छोड़कर देखे; और चाहे कोई भीतर उस एक को देख ले, | आज एक मित्र ने मुझे पत्र लिखा है। वे आई.सी.एस. रिटायर्ड शर्त फिर भी वही होगी कि मन को छोड़कर देखे। और जब भीतर | आफिसर हैं; पढ़े-लिखे आदमी हैं, बड़े भक्त हैं। इधर कैंसर हो का एक दिखाई पड़ता है, तो बाहर और भीतर का द्वंद्व भी गिर जाता | गया। इधर कैंसर हो गया, चिकित्सकों ने इनकार कर दिया, अब है। क्योंकि वह भी दो की भाषा है। भीतर और बाहर, वह भी दो कोई इलाज नहीं है, अब मरना ही होगा। बस, समय की प्रतीक्षा की भाषा है। जब भीतर का एक दिखाई पड़ता है, तो भीतर और | है। वे आज, कल, कभी भी मर सकते हैं। महीने दो महीने लग बाहर दोनों खो जाते हैं; एक ही रह जाता है। जब बाहर का एक सकते हैं। दिखाई पड़ता है, तब भी एक ही रह जाता है; भीतर और बाहर का मुझे पत्र लिखा है कि मेरी सब भक्ति खो गई, मुझे अब किसी द्वंद्व खो जाता है। ईश्वर पर कोई भरोसा नहीं रहा। 'इसे अगर हम संक्षिप्त में कहें तो ऐसे. कि समस्त धर्म की यात्रा कैंसर शरीर पर ही नहीं फैला अब, उसका मतलब हआ, आत्मा मन को खोने की यात्रा है, और समस्त संसार की यात्रा मन को | | तक फैल गया। यह कैंसर शरीर की बीमारी न रही अब, यह आत्मा शक्तिशाली करने की यात्रा है। संसार का अर्थ है, मन को | तक फैल गई। शक्तिशाली किए जाना। धर्म का अर्थ है, मन को विसर्जित किए | लिखा है कि पहले मुझे भरोसा था। जाना। धर्म का अर्थ है, ऐसी चेतना को पा लेना, जहां मन न हो। और मैं जानता हूं कि उनको भरोसा था। और आज से दो साल और संसार का अर्थ है, ऐसे मन को पा लेना, जहां चेतना न हो; | पहले जब मैंने उनसे कहा था कि यह भरोसा बहुत कीमती नहीं है, मन ही मन रह जाए, आत्मा बिलकुल पता न चले। | थोड़ी-सी चीज इसे तोड़ देगी, क्योंकि यह मन का है, तो वे मानने ऐसा हो जाता है। कभी किसी नदी पर देखा हो, पत्तों की बाढ़ को राजी न हुए थे; जिद्द की थी; नाराज हुए थे; कि आप मुझ पर आ जाती है, काई छा जाती है। सारी नदी ढंक जाती है, कुछ दिखाई भरोसा क्यों नहीं करते जब मैं कहता हूं, मुझे भरोसा है? नहीं पड़ता। नीचे के जल का कण भी दिखाई नहीं पड़ता। सारी नदी | | मैंने उनसे कहा था, मुझे कोई अड़चन नहीं है भरोसा कर लेने की छाती पर पत्ते फैल जाते हैं, नदी भीतर छिप जाती हैं। | में। मेरा कोई हर्ज और कोई लाभ नहीं है। लेकिन फिर भी आपसे ठीक ऐसे ही, मन इतना फैल जाता है—फैल सकता है कि मैं कहता हूं कि यह भरोसा मन का है। यह अनुभव नहीं है, यह वह जो आत्मा है, वह बिलकुल दिखाई पड़नी बंद हो जाए। नदी | खयाल है। और यह खयाल मन इसलिए बनाता है कि मन के अपने बिलकुल मौजूद है। एक पत्ते का जरा-सा फासला है। पत्ते की | | भय हैं, जिन्हें वह छिपाना चाहता है। मन जानता है कि मौत होगी। मोटाई ही कितनी है? लेकिन फिर भी दिखाई नहीं पड़ती, ओझल | मौत से डर लगता है; आत्मा को मान लेता है कि आत्मा अमर है। हो जाती है। मन को डर लगता है कि मैं अकेला हूं जगत में, परमात्मा को मान संसार का अर्थ है, मन ही मन रह जाए और आत्मा का बिलकुल लेता है कि किसी का सहारा है। पता न चले। अब वह सब उखड़ गया है; क्योंकि चिकित्सक कहते हैं, नहीं आपको अपनी आत्मा का पता चलता है? | कुछ हो सकता। मंदिर की पूजा-प्रार्थना कुछ नहीं कर पाती; ऐसे ही मन को समझाने के लिए मत कह लेना कि हां, पता चलता साधु-संतों का प्रसाद कुछ नहीं कर पाता। अब सब भरोसा टूट है। आत्मा का पता चलना आसान नहीं है। क्योंकि हमारी सारी चेष्टा | गया। तो मन को मजबूत करने की है। ये जो मन के पत्ते हैं, इनको ही तो। इसी के लिए भरोसा था, इसी के लिए टूट गया। जिस चीज के हम शक्ति दिए चले जाते हैं। और फिर इन्हीं को हम फैलाए चले लिए था, वही चीज अब नहीं हो रही। ईश्वर साथ नहीं दे रहा है, [2871
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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