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* गीता दर्शन भाग-4
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
मन जब भी कुछ तय करता है, तो द्वंद्व में ही तय करता है; उसका क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। विपरीत स्वर भी भीतर मौजूद होता है। जिसको आप मित्र मानते हैं, एवं प्रयोधर्ममनुप्रपन्ना
कहीं किसी मन की गहराई में उसे आप शत्रु भी मानते हैं। इसीलिए गतागतं कामकामा लभन्ते ।।२१।। तो मित्रता इतनी जल्दी शत्रुता बन जाती है! अन्यथा जिस आदमी को
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। मैं पचास साल तक मित्र समझा हूं, एक क्षण में शत्रु कैसे हो तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। २२ ।।। | जाएगा? कोई उपाय नहीं है; कोई रासायनिक प्रक्रिया नहीं है कि और वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पचास साल की मित्रता एक क्षण में, एक शब्द से शत्रुता बन जाए।
पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के बन जाती है लेकिन। गहरे खोजेंगे, तो पाएंगे, ऊपर मित्रता बन साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म के शरण हुए | रही थी, भीतर शत्रुता भी पल रही थी। इसलिए एक क्षण में मित्रता और भोगों की कामना वाले पुरुष बारंबार जाने-आने को | नीचे चली गई, शत्रुता ऊपर आ गई। यह सिर्फ पलड़ा भारी हो प्राप्त होते हैं।
गया। जब हम एक पलड़े पर तराजू के मित्रता रख रहे थे, तभी हम और जो अनन्य भाव से मेरे में स्थित हुए भक्तजन मुझ शत्रुता भी दूसरे पलड़े पर रखे जाते थे। यह सिर्फ समय और संयोग
परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से की बात है कि जिस दिन भी पलड़ा भारी हो जाएगा शत्रुता का, उसी उपासते हैं, उन नित्य एकीभाव से मेरे में स्थिति वाले पुरुषों || दिन शत्रुता प्रकट हो जाएगी। लेकिन मन से कोई आदमी किसी को का योग-क्षेम में स्वयं प्राप्त कर देता हूं। अनन्य भाव से मित्र नहीं बना सकता है।
___ मन, एक तरह की समझें डेमोक्रेसी है, एक लोकतंत्र है। मन
पार्लियामेंटरी है। उसमें जो भी निर्णय होते हैं, वे बहुमत से होते हैं, मा न बाहर तो बांटता ही है, भीतर भी बांटता है। मन से| लेकिन अल्पमत विरोध में खड़ा ही रहता है। और भरोसा नहीं है 01 बाहर जो भी हम जानते हैं, वह तो खंड-खंड हो ही कि जो सदस्य आज पक्ष में मत दिया है, वह कल भी देगा। मन के
जाता है, मन के ही कारण हम भीतर भी खंड-खंड हो | | भीतर भी दल-बदलू सदस्य हैं। वे दल बदल लेते हैं। जाते हैं। मन के इस दूसरे पहलू को भी समझ लेना जरूरी है। । तो हम जो भी निर्णय मन से लेते हैं, वह मेजर माइंड का होता
मन के साथ कभी भी कोई व्यक्ति एक व्यक्ति नहीं होता, बल्कि है। हमारे भीतर जो मन का बहुमत होता है, वह कहता है, ठीक। एक भीड़ होता है। भीतर भी मन एक नहीं है, अनेक है। सदा से | लेकिन अल्पमत प्रतीक्षा करता है कि कितनी देर तक ठीक! समय आदमी ऐसा समझता रहा है कि उसके भीतर एक मन है। वैसा सत्य आएगा, स्थिति बदलेगी, और हम तोड़ लेंगे। इसलिए हमारा मन नहीं है। आपके भीतर बहुतेरे मन हैं, बहु-मन हैं। अब मनोविज्ञान कभी भी एक स्वर उपलब्ध नहीं कर पाता। कर भी नहीं सकता है। स्वीकार करता है कि मैन इज़ पोलीसाइकिक; बहुत मन हैं भीतर, मन के काम करने का ढंग ही द्वंद्व है।। एक मन नहीं है। ये बहुत मन भी इसीलिए हैं कि मन जहां भी चरण कीर्कगार्ड ने कहा है-और थोड़े से लोग जो मन की गहराइयों रखता है, वहीं खंड हो जाते हैं।
| में उतरे हैं, उनमें कीर्कगार्ड एक है—उसने कहा है कि मन के साथ समझें, भीतर मन की इस खंड-खंड हो गई स्थिति को भी | निरंतर ही एक डायलाग है, एक वार्तालाप है, जो मन अपने को ही समझना जरूरी है।
दो हिस्सों में तोड़कर चलाए चला जाता है। आपने शायद ही कभी ऐसी कोई मन की दशा पाई हो, जिसके जब आप सोचते हैं कुछ, तो आपका मन दो हिस्सों में टूट जाता विपरीत स्वर आपके भीतर मौजूद न रहा हो। किसी को आपने है; एक पक्ष में बोलता है, एक विपक्ष में बोलता है। समस्त विचार, किया हो प्रेम और साथ ही उसे घृणा न की हो, ऐसा असंभव है। मन का दो हिस्सों में टूटकर वार्तालाप है। एक खेल है, जो आप किसी को की हो श्रद्धा, और साथ ही भीतर मन का एक हिस्सा भीतर खेलते हैं; इस तरफ से भी, उस तरफ से भी।
अश्रद्धा से न भरा रहा हो, असंभव है। चाहा हो किसी को, और | यह जो मन का भीतर भी दो हिस्सों में टूट जाना है और बाहर साथ ही चाह से बचना भी न चाहा हो, ऐसा नहीं होगा। | भी जगत दो हिस्सों में टूट जाता है, इसके परिणाम क्या होते हैं?
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