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________________ * वासना और उपासना मिलता है, उसी में दुख मिल सकता है, फिर भी हमारी आंख नहीं | | तो सड़क पर भीख मांगने निकल जाते हैं। अमीर आदमी का दुख खुलती। सच तो यह है, उसी में दुख मिलता है, जिसमें हमें सुख . है कि वह जो चाहता था, वह मिल गया। गरीब आदमी का दुख है मिलता है। ऐसी किसी चीज में आपको कभी दुख मिला है, जिसमें | | कि जो उसने चाहा, वह नहीं मिला है। आपको सुख पहले न मिला हो? जहां सुख मिलता है, वहीं दुख गरीब और अमीर के दुख अलग-अलग होते हैं, लेकिन दुख में मिलता है। जिसमें सुख मिलता है, उसी में दुख मिलता है। जिससे | कोई फर्क नहीं होता। एक ही चीज के दो छोर होते हैं। गरीब वहां अपेक्षा बांधते हैं, उसी से अपेक्षा टूटती है। जिससे आशा बांधते | खड़ा है, जहां कभी अमीर खड़ा था। और अमीर वहां खड़ा है, जहां हैं, उसी से विषाद फलित होता है। एक ही बीज होता है, फिर भी | | गरीब अगर कोशिश करता रहा, तो कभी खड़ा हो जाएगा। लेकिन हम देख नहीं पाते और जन्मों-जन्मों तक यह कथा ऐसी ही दोहरती | दोनों दुखी हैं। चलती है। यह आना-जाना ऐसे ही होता रहता है। लेकिन गरीब को दिखाई पड़ता है कि चीजें नहीं हैं, इसलिए दुखी कहां, कठिनाई कहां होगी? वही कठिनाई है मन के देखने में। हूं। उसे दूसरा पहलू दिखाई नहीं पड़ता। अमीर को दिखाई पड़ता मन जब किसी चीज में सुख देखता है, तो दुख दूसरा हिस्सा होता है कि चीजें हैं, और दुखी हूं। उसे भी दूसरा पहलू नहीं दिखाई है; वह पीछे छिपा होता है, मन को पूरा दिखाई नहीं पड़ता। जब वह पड़ता। और हम दूसरे पहलू को बदलने के लिए आतुर रहते हैं। सुख देखता है, तो उसे सुख दिखाई पड़ता है, वह कहता है, सुख है इसलिए गरीब अमीर बनने को राजी रहता है। और बहुत बार अमीर यहां। दुख दिखाई नहीं पड़ता। वह ओझल होता है। वह विपरीत है। गरीब बनने को राजी हो गए हैं। वह खयाल में ही नहीं आता। और जब दुख दिखाई पड़ता है, तब | | आखिर अमीर लड़कों ने, बुद्ध ने और महावीर ने, सब छोड़कर सुख ओझल हो गया होता है। तब सुख दिखाई नहीं पड़ता। | भिखारी के रूप में खड़े हो गए! यह दूसरे छोर पर जाने की इनकी · यह मन के देखने का जो अधूरा ढंग है, उसके कारण जो एक तैयारी का कारण क्या है? एक ही कारण है कि जो हमारे पास होता इकट्ठा सत्य है, वह हमें दो हिस्सों में टूटकर दिखाई पड़ता है। क्या | | है, उसी से दुख मिलने लगता है। जितनी हो दूरी, उतने ही सुख का हम मन के बिना जीवन के सत्य को पूरा देख सकते हैं? आभास होता है। जितनी हो निकटता, उतना ही दुख प्रकट होने जिन्होंने भी देखने की कोशिश की है, उन्हें मन को छोड़ देना | | लगता है। जो भी चीज पास आ जाए, वही दुख देने लगती है। जो पड़ा। मन को छोड़ने का अर्थ ही होता है, कामना को छोड़ देना। | भी चीज दूर हो, वही सुख देती मालूम पड़ती है। क्योंकि दूर है; दे क्योंकि मनकामना का विस्तार है। मन वासना है, मन डिजायरिंग | तो नहीं सकती, सिर्फ आभास हो सकता है। अगर किसी व्यक्ति है-यह मिल जाए, यह मिल जाए, यह मिल जाए, यह मिल को, जो भी उसने चाहा है, सभी मिल जाए इसी वक्त, तो उससे जाए। और कठिनाई तो यह है. अगर न मिले. तो दख होता है। ज्यादा दखी आदमी खोजना संसार में मश्किल होगा। और मिल जाए, तो भी सुख नहीं होता। न मिले, तो दुख होता है कल्पवृक्ष के बारे में हम सुनते हैं कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष है। उसके खोने का; और मिल जाए, तो बोर्डम, ऊब हो जाती है। नीचे आदमी बैठे, तो जो भी चाहे, उसे मिल जाए। शायद हम ऐसा कोई सुख आपने जाना है, जो आपको मिल जाए, फिर सोचते होंगे, उस वृक्ष के नीचे बैठकर लोग कैसे सुख को न उबाए न? जिससे ऊब न होने लगे? उपलब्ध हो जाते होंगे! मैं आपसे एक राज की बात कहता हूं। कभी गरीब आदमी का दुख होता है अभाव का, और अमीर आदमी वह वृक्ष मिले, तो भूलकर उसके नीचे मत बैठना। अन्यथा आपसे का दुख होता है उपलब्धि का। गरीब आदमी पीड़ित होता है, जो नहीं बड़ा दुखी व्यक्ति फिर संसार में कोई भी नहीं होगा। क्योंकि सख मिला उससे; अमीर आदमी पीड़ित होता है उससे, जो मिल गया। सिर्फ उसकी आशा में है, जो नहीं मिला है। और जब तक नहीं बुद्ध को पीड़ा क्या है? बुद्ध को पीड़ा यह है कि जो भी मिल मिला है, तभी तक। और जब मिल जाता है, तभी दुख हो जाता है। गया है, उसमें कोई सुख नहीं है। घर छोड़कर भाग जाते हैं। उस | तो सुख का जो आभास है, वह वासना का आभास है। वासना युग की, उस इलाके की जितनी सुंदर युवतियां थीं, सभी बुद्ध को | जब तक अतृप्त है, तब तक सुख का आभास है। वासना जब तृप्त उपलब्ध थीं। उनसे घबड़ाकर भाग जाते हैं। महावीर को क्या | | होती है, तब सब बिखर जाता है। आदमी लेकिन चाहे चला जाएगा! तकलीफ है? सब मिल गया है, और सुख तो दिखाई पड़ता नहीं! | यश को चाहेगा, अपयश को नहीं। सुख को चाहेगा, दुख को नहीं। 1289
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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