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________________ ६ दक्षिणायण के जटिल भटकाव * अपने मुंह से नहीं लिया, उसकी कब्र पर जाकर रोने का प्रयोजन? कि जब भी मोक्ष की बात करो, जब भी ईश्वर की बात करो, तो वोल्तेयर ने कहा, जब से शत्रु मर गया, तब से मेरे भीतर भी | लोग ईश्वर को पाने के लिए, मोक्ष को पाने के लिए आतुर हो जाते बहुत कुछ मर गया, क्योंकि उससे लड़कर ही मैं जीता था। मेरी हैं। वासना पुनः निर्मित हो जाती है। ताकत ही दीन-हीन हो गई। मुझे पहली दफा उसके मरने पर पता इसलिए बुद्ध को हम समझ भी नहीं सके। हमारे मुल्क में जो चला कि उसके बिना मैं नहीं हूं। वह था, लड़ाई थी, तो रस था, मैं | सर्वाधिक, मनुष्यों में जो कोहनूर पैदा हुआ, उसे हमने अपने ही था। उसके मरते ही मैं मर गया हूं। मेरा बहुत कुछ तो ढह गया। । | हाथों मुल्क के बाहर हटा दिया। हम बुद्ध को नहीं समझ सके, हम अपने मित्रों को खोकर इतना कभी नहीं खोते, जितना अपने क्योंकि हम यह समझ ही न पाए कि बस स्वतंत्रता भी कोई बात हो शत्रुओं को खोकर खो देते हैं। क्योंकि मित्र कभी हमारे जीवन के | सकती है। इतने अनिवार्य अंग नहीं होते। और मित्र जो हैं, वे रिप्लेस किए जा | हमने पूछा, किसलिए साधना? तो बुद्ध ने कहा, बस साधना सकते हैं; उन्हें बदलना बहुत कठिन नहीं है। शत्रु बहुत आसानी से | | काफी है। किसलिए मत पूछो। क्योंकि किसलिए के साथ वासना रिप्लेस नहीं होते। शत्रु बड़ी स्थायी घटना है। और आदमी शत्रुओं | | आ जाती है। हमने पूछा कि तुम्हारे निर्वाण में क्या होगा? क्या में जीता है। और शत्रुओं के बीच उनसे ही मुक्त होने को, उन्हें ही | मिलेगा हमें? बुद्ध ने कहा, जहां तक मिलता है कुछ, वहां तक समाप्त करने को जीता है, और उनको समाप्त करके पाता है कि | संसार है। हमने पूछा कि आनंद होगा वहां? बुद्ध ने कहा, शब्दों वह बिलकुल निर्वीर्य हो गया। की बात ही मत उठाओ। क्योंकि आनंद यदि मैं कहूं, तो तुम जो भी जिससे हम मुक्त होना चाहते हैं, अगर हम मुक्त हो जाएं उससे, समझोगे, वह सुख से ज्यादा नहीं हो सकता। तुम्हारी समझ केवल तो हम शायद पुनः चाहें कि फिर से वह बंधन मिल जाए तो बेहतर सुख की है। आनंद को तुम न समझ पाओगे। और मैं कहूं हां, तो है। क्योंकि मुक्त होने का रस उस व्यक्ति से, उस स्थिति से भिन्न | तुम समझोगे कि कोई सुख होगा। अगर मैं कहूं कि दुख नहीं होगा, नहीं है, जिससे हम मुक्त होना चाहते हैं। तो भी तुम समझोगे कि जो दुख तुम्हें है, वे वहां नहीं होंगे। जैसे इसलिए मुक्त होने की कामना, फ्रीडम फ्राम समवन, फ्राम यहां किसी को नौकरी नहीं मिलने का दुख है, तो वहां नौकरी मिल समथिंग-फ्रीडम फ्राम-किसी से मुक्त होने की जो वासना है, जाएगी। या यहां किसी की टांग टूट गई है, तो वहां टांग नहीं वह मोक्ष की वासना नहीं है। संसार से मुक्त होने की जो वासना टूटेगी। या यहां कोई बीमार है, तो वहां बीमार नहीं होगा। तो बुद्ध है, वह मोक्ष की वासना नहीं है। मोक्ष का आयाम बिलकुल | ने कहा, तुम चुप ही रहो। उस संबंध में पूछो ही मत। और मुझे निर्वासना का आयाम है। वहां किसी से मुक्त नहीं होना है। वहां गलत सवाल के गलत जवाब देने को मजबूर मत करो। बस मुक्त होना है। जस्ट फ्रीडम, नाट फ्राम समथिंग। हम नहीं समझ पाए; हमने बुद्ध को बहिष्कृत कर दिया। हमने . इसे और एक तरफ से समझ लें। कहा, यह आदमी महानास्तिक मालूम होता है। ईश्वर की बात नहीं __तीन तरह की मुक्तताएं होती हैं, तीन तरह की फ्रीडम होती हैं।। | करता, मोक्ष की बात नहीं करता! किसी से स्वतंत्रता; किसी के लिए स्वतंत्रता; और बस स्वतंत्रता। हम थे महानास्तिक। हम असल में मोक्ष को भी संसार की भाषा किसी से स्वतंत्रता का अर्थ होता है, अतीत से मुक्ति, पीछे से | में ही समझ सकते हैं। हमें अगर ईश्वर से भी मिलना हो, तो हम मुक्ति। और किसी के लिए स्वतंत्रता का अर्थ होता है, भविष्य की दुकान की ही भाषा में मिलने की तैयारी करते हैं। हमारी सारी खोज वासना। दोनों ही स्थितियों में मन मौजूद होता है, और उत्तरायण | सशर्त है, क्या दोगे? क्या पाओगे? क्या मिलेगा? वही हमारी की पूरी यात्रा नहीं हो सकती है। आकांक्षा का केंद्र बना रहता है। लेकिन बस स्वतंत्रता-नाट फ्राम, नाट फॉर–जस्ट। न ही | ___ उत्तरायण तो तब शुरू होता है, जब कोई व्यक्ति सुख-दुख दोनों किसी से स्वतंत्र होने की वासना: न ही किसी के लिए स्वतंत्र होने से छूटता है। छूटता है अर्थात दोनों के अनुभव ने उसे बता दिया, की वासना; बस स्वतंत्र होने का आयाम, बस स्वतंत्र होना। । | व्यर्थ हैं दोनों, निरर्थक हैं दोनों, असार हैं दोनों; और अब दोनों में ___ इसलिए बुद्ध, जब कोई पूछता कि ईश्वर है ? चुप रह जाते। जब कोई चुनाव नहीं करना है, दोनों को एक साथ ही छोड़ देना है। कोई पूछता, मोक्ष है? हंसते, मौन रह जाते। क्योंकि बुद्ध ने कहा और चुनाव संभव भी नहीं है। जैसे कोई एक ही सिक्के के एक
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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