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*गीता दर्शन भाग-4
मुक्ति चाहता है, कोई अनुभव नहीं, क्योंकि सभी अनुभव बंधन | | उसके घर की। लेकिन अब मैं उसके घर के रास्ते से बचकर ही उसे हैं। सभी अनुभव बंधन हैं, चाहे वे दुख के हों और चाहे सुख के, | | खोजता हूं कि कहीं वह मिल न जाए। कहीं वह मिल न जाए!
और चाहे अशांति के और चाहे शांति के। सभी अनुभव बंधन हैं, | __ हम जो चाहते हैं जब वह मिल जाता है, तब जितना दुख उपलब्ध चाहे संसार का और चाहे परमात्मा का। सभी अनुभव बंधन हैं, होता है, उतना चाहते क्षण में कभी भी नहीं हआ था। असल में क्योंकि प्रत्येक अनुभव से अंततः छूटने का मन हो जाएगा। | चाहत कभी दुख नहीं देती, उपलब्धि दुख देती है। जिसे हमने
अगर आपको ईश्वर भी मिल जाए और आप उसके आलिंगन चाहा, अभागे हैं हम, अगर उसे पा लें। भाग्यवान हैं, अगर पाने में हों, तो कितनी देर लगेगी जब आपका मन करने लगेगा कि अब से बच जाएं। क्योंकि जिसे हम नहीं पा पाते, उसकी आकांक्षा का छुटकारा कब हो? अब हम हटें कैसे?
रस जारी ही रहता है—इंतजार में, प्रतीक्षा में, सपने में, आशा में। रवींद्रनाथ ने एक छोटा-सा गीत लिखा है। लिखा है कि खोजता | फूल मुरझाते नहीं, पौधा सूखता नहीं; वासना हरी ही बनी रहती है। हूं प्रभु को जन्मों-जन्मों से। कभी उसकी झलक दिखती है। कभी | उसमें नए-नए पत्ते निकलते ही चले जाते हैं। लेकिन मिल जाए दूर किसी तारे के पास उसकी आकृति दिखती है। कभी उसकी | जिसे हमने चाहा, जो हमने चाहा वह हम पा लें, तब अचानक सब छाया दिखाई पड़ती है। लेकिन जब तक उस जगह पहुंचता हूं जहां | गिर जाता है, सब स्वप्न भंग हो जाते हैं। उसकी छाया थी, तब तक वह और दूर जा चुका होता। जब तक अमेरिका में जो आज डिसइलूजनमेंट है, एक भ्रम का टूट जाना, वहां पहुंचता हूं जहां उसकी झलक दिखी, तब तक वह न मालूम | | स्वप्नभंग, वह उन सारी उपलब्धियों को पा लेने का परिणाम है, जो कहां खो चुका होता। ऐसे जन्म-जन्म भटककर, लेकिन एक दिन | | आदमी ने हजारों-हजारों साल तक चाही थीं और आज मिल गई मेरी यात्रा पूरी हो गई है, और मैं उस द्वार पर पहुंच गया जो प्रभु का | हैं। आगे अब कोई भविष्य नहीं है। सुख बड़े गहन दुख में उतार धाम है।
देता है। ___ मैं उसकी सीढ़ियां चढ़ गया और मैंने उसके द्वार की सांकल | सुख भी दुख है, ऐसी जिस दिन प्रतीति होती है, उस दिन आदमी अपने हाथ में ले ली, और मैं सांकल बजाने को ही था, तभी मेरे | | का उत्तरायण, उसके भीतर का सूर्य ऊपर की ओर उठना शुरू होता मन में सवाल उठा कि यदि आज प्रभु मिल गया, तो फिर आगे क्या | है। मुक्ति की दिशा! ध्यान रहे, मैं नहीं कह रहा हूं, मुक्ति की होगा? आगे फिर मैं क्या करूंगा? अब तक तो उसी की खोज में आकांक्षा। क्योंकि जब तक आकांक्षा है, तब तक आशा है, तब ये जन्म-जन्म मैंने बिताए। मैं व्यस्त था। मैं दौड़ रहा था। मैं कुछ तक सुख है, तब तक भविष्य है। मुक्ति का आयाम, डायमेंशन कर रहा था और कुछ पा रहा था। होने की, बिकमिंग की एक लंबी आफ फ्रीडम, डिजायर फॉर फ्रीडम नहीं। मुक्ति के आयाम में भीतर यात्रा थी, उसमें में रसलीन था। मंजिल थी आगे, उसे पाने में का सूर्य उठना शुरू होता है। अहंकार को तृप्ति थी। लेकिन अगर आज प्रभु मिल ही गया, तो लेकिन मुक्ति की आकांक्षा तो बड़ी दुर्लभ है। मुक्त कोई होना कल, फिर कल नहीं होगा! फिर कोई भविष्य नहीं। फिर कोई आशा | | नहीं चाहता। जो कहते भी हैं कि हम मुक्त होना चाहते हैं, वे भी नहीं। फिर आगे कोई मंजिल नहीं।
मुक्त होना नहीं चाहते। तो रवींद्रनाथ ने लिखा है, मैंने वह सांकल आहिस्ता छोड़ दी, . और इसलिए एक बहुत मजे की घटना घटती है। जिनसे हम कि कहीं कोई आवाज न हो जाए और कहीं द्वार खुल ही न जाए। मुक्त होना चाहते हैं, जब उनसे मुक्त हो जाते हैं, तो हम पाते हैं कि मैं अपने जूते हाथ में उठा लिया, कि कहीं सीढ़ियों से लौटते वक्त | उनसे मुक्त होकर हमारा जीवन बिलकुल बेस्वाद हो गया, तिक्त पैरों की ध्वनि न हो जाए और कहीं द्वार खुल ही न जाए। और मैं | हो गया, एकदम रूखा हो गया। एकदम हम पाते हैं कि हम वहां जो भागा हूं उस घर से, तो मैंने फिर लौटकर नहीं देखा। | खड़े हो गए, जहां अब करने को फिर पुनः कुछ भी नहीं बचा है।
अब भी मैं ईश्वर को खोजता हूं। अब भी मैं ईश्वर को खोजता | | वोल्तेयर का एक शत्रु मर गया था, तो वोल्तेयर उसकी कब्र पर हूं। अब भी मैं गुरुओं से पूछता हूं कि कहां है उसका मार्ग? और जाकर रोया। मित्रों ने पूछा कि जिस शत्रु को तुम देखना पसंद नहीं भलीभांति हृदय के अंतस्तल में जानता हूं उसका मार्ग। अब भी मैं | करते थे, और जो रास्ते से आता दिख जाए तो तुम गली में मुड़ पूछता हूं कि कहां है उसका घर? और भलीभांति मुझे पहचान है| जाते थे कि उसकी छाया तुम्हें न छू जाए, जिसका नाम तुमने कभी