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________________ * दक्षिणायण के जटिल भटकाव * है। लेकिन बाहर बहने वाली ऊर्जा से तो बहुत गहन आनंद इसे दुख ही नहीं उबाता, सुख की भी अपनी बोर्डम है, अपनी ऊब उपलब्ध होंगे। है। और वही सुख, वही सुख रोज मिले, तो उससे भी हम इतने ही ___ तंत्र ने भी इस आंतरिक प्रवाह में बहुत-से प्रयोग किए हैं। और | ऊब जाते हैं जैसे दुख से ऊब जाते हैं। बल्कि सचाई तो यह है कि जो लोग सुखाकांक्षी हैं, जिन्हें आनंद का न कोई स्मरण है, न कोई हम दुख से इतने जल्दी कभी नहीं ऊबते, जितने जल्दी हम सुख से खयाल; और जिन्हें मुक्त होने की भी कोई भावना नहीं है, क्योंकि ऊब जाते हैं। दुख से हम इसलिए नहीं ऊबते कि दुख से हम छूटने स्वतंत्रता की कामना, परम स्वतंत्रता की कामना अति कठिन बात | की खुद ही चेष्टा में रत रहते हैं। सुख से हम इसलिए ऊब जाते हैं है। यदि हम चाहते भी हैं ज्यादा से ज्यादा, तो यही चाहते हैं कि कि सुख से हम छूटना भी नहीं चाहते और सुख भी रोज-रोज दुख मिट जाएं और सुख उपलब्ध हों। धर्म की खोज में जाने वाले दोहरकर बेरस, बेस्वाद और नीरस हो जाता है। लोग भी सौ में निन्यानबे मौकों पर दुख से बचने के लिए सुख की| इसलिए एक बहुत अदभुत घटना मनुष्य के इतिहास में दिखाई खोज में जाते हैं। | पड़ती है कि दुखी समाज इतने ऊबे हुए नहीं होते, क्योंकि उनको __इसलिए बढ़ेंड रसेल जैसे लोग कहते हैं कि जिस दिन विज्ञान एक आशा होती है कि आज नहीं कल दुख मिटेगा और सुख जमीन पर सुख की सारी व्यवस्था जुटा देगा, उस दिन धर्म का | | मिलेगा। उस आशा के भरोसे वे जी लेते हैं। इसलिए दुखी समाज विनाश हो जाएगा। बहुत संतापग्रस्त नहीं होते। दुखी समाज, दीन-दरिद्र, भिखारी उनकी बात निन्यानबे मौकों पर सही है। वह रसेल का वक्तव्य समाज बहुत चिंतित, बहुत परेशान नहीं होते। दुखी समाज में निन्यानबे मौकों पर सही है। यह बात सच है, अगर विज्ञान उन सारे आत्महत्याएं कम होती हैं, लोग कम पागल होते हैं। दुखी समाज सुखों को आपको दे दे, उन सारे दुखों को मिटा दे जो आपको | में मानसिक बीमारी कम होती है। उसका कारण कि एक आशा, पीड़ित करते हैं, तो मंदिर और मस्जिद और चर्च में इकट्ठे होने वाले | एक भविष्य तो आगे होता ही है। आज दुख है, कल सुख हो सौ लोगों में से निन्यानबे लोग तो तत्काल विदा हो जाएंगे। क्योंकि | सकेगा। लेकिन सुखी समाज में यह आशा भी नष्ट हो जाती है। जिन सुखों के लिए वे मंदिर में आए थे और प्रभु की प्रार्थना के लिए | आज अमेरिका की पीड़ा यही है कि जिन-जिन सुखों को आए थे, वे सुख अब विज्ञान ही उन्हें दे सकता है। आदमियों ने सदा चाहा है, आज दुर्भाग्य से वे उसे पाने में सफल लेकिन एक आदमी फिर भी मंदिर, मस्जिद और गिरजाघरों में | | हो गए हैं और अब आगे कोई भविष्य दिखाई नहीं पड़ता है। सब बच जाएगा। या हो सकता है, एक आदमी गिरजाघरों और मंदिरों सुख मिल गए हैं—अब? अब भविष्य बिलकुल अंधकारपूर्ण है, को न बचा सके, तो जहां भी होगा, वहीं मंदिर में होगा, वहीं आशा का दीया बिलकुल बुझ गया। और जब आशा का दीया बुझ मस्जिद में होगा। वह एक आदमी सुख की तलाश में नहीं है, वह जाए, तो सुख इतना दुख देता है, जितना कोई दुख कभी नहीं दे आनंद की तलाश में है। थोड़ा-सा फर्क खयाल में ले लें, तो आगे सकता है। की बात समझ में आ जाएगी और प्रतीक भी समझ में आ सकेंगे। इसलिए आज अमेरिका की नई पीढ़ी के लड़के और लड़कियां दुख से जो मुक्त होना चाहता है, वह सुख चाहता है। लेकिन दुखों की तलाश में घूम रहे हैं। वे जो कार पर बैठ सकते हैं, पैदल दख और सख दोनों से जो मक्त होना चाहता है, वह आनंद चाहता चलना चाहते हैं। वे जो हवाई जहाज में उड़ सकते हैं, वे दीन-दरिद्र है। आनंद का अर्थ है, मैं सुख-दुख दोनों से मुक्त होना चाहता हूं। | वेष में, गंदे, गांव-गांव, सड़कों-सड़कों पर, सारी दुनिया के ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो सुख-दुख दोनों से मुक्त होना | कोने-कोने में छा गए हैं। आज दुख को वरण करना जैसे स्वाद को चाहे। यद्यपि जिस आदमी ने भी जीवन का अनुभव लिया है, वह | बदलना हो गया है। और एक चेंज, एक बदलाहट फिर सुखद जानता है कि सुख भी दुख का ही एक रूप है। और सुख भी थोड़ी | मालूम पड़ती है। ही देर में दुखदायी हो जाते हैं। और वह यह भी जानता है कि सुख | । सुख भी उबा देता है। का भी एक तनाव है, सुख की भी एक विक्षिप्तता है और सुख की जीवन का अनुभव कहता है कि सुख और दुख जब दोनों से ही भी एक उत्तेजना है और सुख भी उसी तरह थका डालता है जैसे दुख छुटकारे की कामना पैदा होती है, तो मनुष्य उत्तरायण की तरफ थका डालता है। चलता है। उत्तरायण की तरफ चलने का अर्थ है कि मनुष्य अब 139
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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