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________________ * गीता दर्शन भाग-44 देखता हूं, जहां भिखारी भिक्षा मांग रहा है। उसकी सेवा करो। यह हैं, यह भला है, और भला नहीं निकलता। सोचते हैं, यह फूल है; ठीक है; बुरा नहीं है; बहुत अच्छा है। उचित है कि सेवा की जाए। | और जब मुट्ठी बांधते हैं, तो कांटा छिद जाता है और लहूलुहान हो लेकिन इसमें मौलिक भेद हैं। जाते हैं। लेकिन फिर भी कुछ नहीं सीखते। फिर कल एक फूल भारतीय साधु ध्यान पर जोर देता रहा है, क्योंकि ध्यान से ज्ञान | दिखाई पड़ता है, फिर जोर से मुट्ठी बांधते हैं, फिर कांटा चुभता है, जन्मेगा। और ईसाइयत जोर दे रही है सेवा पर, पुण्य पर, क्योंकि | फिर रोते हैं। परसों फिर एक फूल दिखाई पड़ता है, फिर हाथ मुट्ठी पुण्य से पाप कटेगा। मौलिक आधारों का भेद है। अगर ज्ञान | बांधते हैं, फिर वही दुख। चाहिए, तो ध्यान मार्ग होगा। और अगर पाप काटना है, तो पुण्य | लेकिन यह खयाल नहीं आता कि जरा फूल को अब गौर से देख उपाय है। लें. कहीं हर फल कांटा तो नहीं है? या मेरे यह मट्टी बांधने में ही लेकिन भारतीय मनीषा कहती है कि अगर बिना ज्ञान के तुम | तो कांटे के चुभने की पैदाइश नहीं है? यह मेरा मट्टी बांधने का जो पुण्य भी करने लगे, तो पुण्य भी तुम्हें बहुत गहरे नहीं ले जाएगा। | आग्रह है, यही तो मेरा दुख नहीं है? और मैं यह फूल से जो क्योंकि अज्ञानी के पुण्य का मूल्य कितना है? और अज्ञानी की सेवा | आकर्षित हो जाता हूं, यह क्यों हो जाता हूं? यह मेरी जो आत्मा किसी भी क्षण खतरनाक हो सकती है। और अज्ञानी की सेवा के | | फूल की तरफ बहने लगती है, यह जो आसक्ति और यह जो राग पीछे भी अज्ञान तो खड़ा ही रहेगा। पैदा हो जाता है, यह क्यों हो जाता है? इस सबके मूल को जो जान तो मूल रोग तो हटता ही नहीं है। मैं आपकी गर्दन नहीं काटता; लेता है, वह मुक्त हो जाता है। आपके पैर दबाने लगता हूं। लेकिन मैं तो मैं ही हूं, वही का वही। तो कृष्ण कहते हैं, इस ज्ञान को जानकर तू इस दुखरूप संसार मेरे भीतर जो चेतना है, वह वही की वही है। उसमें कोई भेद नहीं से मुक्त हो जाएगा। पड़ गया है। मेरे लोभ अपनी जगह खड़े हैं; लेकिन उनका रूप लेकिन ध्यान रखें, जानकर, सुनकर नहीं। कृष्ण को कहना बदल गया, मिट नहीं गए। मेरा क्रोध अपनी जगह खड़ा है। लेकिन चाहिए था, हे अर्जुन, इस ज्ञान को सुनकर तू मुक्त हो जाएगा! उसका मार्गांतीकरण हो गया, सब्लिमेशन हो गया। लेकिन वह अर्जुन बहुत प्रफुल्लित हुआ होता। आप भी प्रफुल्लित होते रहे हैं। अपनी जगह खड़ा है। और नए-नए रूपों में प्रकट होता रहेगा। | ___ लोग सोचते हैं, शास्त्रों को सुनकर धर्म हो जाएगा। लोग सोचते . भारत कहता है, जानने के अतिरिक्त कोई मुक्ति नहीं है। और हैं, गीता को सुनकर ज्ञान हो जाएगा। इतना सस्ता अगर ज्ञान होता, इसलिए कहता है कि जो जान लेता है, वह उससे विपरीत नहीं जा तो अज्ञानी किसी को होने की जरूरत ही न थी। सुनकर नहीं सकता। अगर मझे पता है कि यह आग है. तो मैं हाथ नहीं डालता। इसलिए इंफेटिकली. जोर देकर कष्ण कहते हैं. जिसको जानकर। हूं। और अगर कभी डालता भी हूं, तो भलीभांति जानकर डालता लेकिन हम सुनने को भी जानना समझ लेते हैं। जो-जो आप हूं कि यह आग है और मैं जलूंगा। फिर मैं जलने के लिए पछताता सुनते हैं, वह आपका ज्ञान हो जाता है। यह बड़े मजे की बात है। नहीं हूं। फिर जलने के लिए रोता नहीं फिरता हूं। फिर जलने के अखबार पढ़ लिया, आप ज्ञानी हो गए। गीता पढ़ ली, आप ज्ञानी लिए शिकायत नहीं करता हूं। फिर बात ही शिकायत की नहीं है। हो गए! जो भी पढ़कर आपकी स्मृति में चला गया, आप ज्ञानी मैंने जानकर जो किया है, तो फिर इस जगत में कोई शिकायत का | हो गए! उपाय नहीं है। मैं जिम्मेवार हूं। स्मृति ज्ञान नहीं है। लेकिन हमारा स्कूल, हमारा विश्वविद्यालय लेकिन जानकर कोई आग में हाथ नहीं डालता है। डालने का स्मृति को ही ज्ञान बताता है। सारा संसार स्मृति को ज्ञान मानकर कोई कारण नहीं है। अज्ञान में हाथ चला जाता है आग में, और दुख चलता है। हम कहते हैं, एक आदमी बहुत जानता है, क्योंकि पैदा होता है। अज्ञान दुख है। हम सब तरह की आग में हाथ डालते | | उसकी बहुत स्मृति है। हम कहते हैं, फलां आदमी को गीता कंठस्थ हैं। हालांकि यह हो सकता है कि जब हम हाथ डालते हैं, तब है। उनका कंठ पागल हो गया, और तो कोई सार नहीं है। कंठस्थ हमको आग दिखाई ही न पड़ती हो। से क्या होगा? फलां आदमी को वेद कंठस्थ है, तो भारी गरिमा है। अज्ञान में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता; आदमी अंधे की तरह कंठस्थ से क्या होगा? कंठ का क्या कसूर है? कंठ को क्यों चलता है। सोचते हैं कि यह अच्छा है, और बुरा होता है। सोचते परेशान कर रहे हैं? 176
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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