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________________ * श्रद्धा का अंकुरण * परंपराएं हैं। और इन दोनों धर्म परंपराओं की बुनियादी बात समझने मैंने सुना है, एक आदमी पर मुकदमा चला और अदालत ने जैसी है। उससे कहा कि तुम कैसे आदमी हो? इस आदमी ने तुम्हारा इतना पश्चिम के जो भी धर्म हैं, यहूदी धर्म से संबंधित जो भी धर्म हैं, | भरोसा किया और तुमने इसे ही धोखा दिया! तो उस आदमी ने कहा, वे सभी धर्म पाप को मनुष्य का मूल कारण मानते हैं दुख का। भारत अगर इसको मैं धोखा न देता, तो किसको धोखा देता! इसने मुझ पर के सभी धर्म अज्ञान को दुख का मूल कारण मानते हैं, पाप को | इतना भरोसा किया, इसीलिए तो मैं धोखा दे पाया। अगर यह भरोसा नहीं। इसलिए क्रिश्चिएनिटी कहती है, दि ओरिजिनल सिन, वह | पहले से ही न करता, तो धोखा असंभव था। सजा आप सिर्फ मुझे जो मूल पाप है, वही सब दुखों का आधार है। भारत कहता है, वह | | ही मत दें, इसे भी दें। हम दोनों भागीदार हैं। इसने भरोसा किया; जो मूल अज्ञान है, वही सब दुखों का आधार है। मैंने धोखा दिया। यह घटना हम दोनों के सहयोग से घटी है। और यह जरा सोचने जैसा है। क्योंकि भारत का यह कहना है | और यह बात ठीक है। यह बात बिलकुल ही ठीक है। शायद कि पाप भी अगर हो सकते हैं, तो तभी, जब अज्ञान हो। इसलिए धोखा देने वाला उतना जिम्मेवार नहीं है, जितना धोखा खाने वाला पाप मूल नहीं हो सकता, अज्ञान उससे भी पहले चाहिए। पापी होने | जिम्मेवार है; क्योंकि उसके बिना धोखा नहीं दिया जा सकता। के लिए भी अज्ञानी होना जरूरी है। आदमी अगर गलत भी करता | आप जानते हैं कि सच बोलना ठीक है. दसरों के लिए, समझाने है, तो इसीलिए कि उसके जानने में कहीं भूल है। यह बहुत मजे | के लिए; चेहरे बनाने के लिए; प्रदर्शन के लिए। लेकिन जब मौका की बात है कि कोई आदमी जानकर गलत नहीं कर सकता है! | आए, तो कुशलता से झूठ बोलना ही उचित है, वह आप भीतर लेकिन आप कहते हैं कि नहीं, मुझे पता है कि सच बोलना | | जानते हैं। आपके भीतर झूठ ही आपका भरोसा है, सच नहीं। चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, फिर भी मैं झूठ बोलता हूं! | आप कहते हैं, मैं जानता हूं, क्रोध करना बुरा है। लेकिन यह आप आपको पता नहीं है। सुन लिया होगा आपने। किसी ने कहा तभी जानते हैं, जब कोई दूसरा क्रोध कर रहा होता है; या आप यह होगा। कहीं पढ़ा होगा। लेकिन भीतर गहरे में आप यही जानते हैं तब जानते हैं, जब आपका क्रोध आकर जा चका होता है। लेकिन कि झूठ बोलने में ही फायदा है। भीतर आप यही जानते हैं। जानना जब क्रोध होता है, तब आपका रो-रोआं जानता है कि क्रोध ही आपका झूठ के ही पक्ष में है। आपने कितना ही सना हो कि सच | | उचित है; आपका रो-रोआं कहता है कि क्रोध ही उचित है। बोलना ठीक है, लेकिन आप भीतर जानते हैं कि वह दूसरों के लिए भारत कहता है, अज्ञान के अतिरिक्त न कोई पाप है और न कोई ठीक है। और इसलिए भी ठीक है दूसरों के लिए कि अगर दूसरे दुख; और ज्ञान के अतिरिक्त कोई मुक्ति नहीं है। सच न बोलें, तो मैं झूठ कैसे बोल पाऊंगा? अगर मेरे झूठ को भी | स्वभावतः, पश्चिम अगर मानता है कि पाप आधार है दुख का, सफल होना है, तो वह तभी सफल हो सकता है, जब बाकी लोग | तो पुण्य आधार होगा मुक्ति का। इसलिए ईसाई फकीर या ईसाई सच बोल रहे हों।. | मिशनरी सेवा में लगा है। सेवा का प्रयोजन यह है कि पाप कट इसलिए झूठ बोलने वाला भी लोगों को समझाता रहता है, सच | | जाए; बुरा काम है, अच्छे काम से कट जाए। बोलो। क्योंकि अगर सारी दुनिया झूठ बोलने लगे, तो झूठ | इसलिए पश्चिम के विचारक को समझ में नहीं आता कि बिलकुल व्यर्थ हो जाएगा। आखिर बेईमानी के सफल होने के लिए | भारतीय साधु ध्यान करके क्या करता है? सेवा करनी चाहिए! और भी कुछ तो ईमानदार चाहिए; चोरी के सफल होने के लिए भी कुछ | विवेकानंद और गांधी के प्रभाव में ईसाइयत का यह भाव, नासमझी तो ऐसे लोग चाहिए, जो चोरी नहीं करते हैं। नहीं तो बहुत मुश्किल | से, हिंदू मन में भी प्रविष्ट हो गया है। हिंदू मन भी डरता है। वह हो जाएगी। भी कहता है, क्या फायदा? ध्यान से क्या होगा? अस्पताल अगर यहां हम सारे लोग बैठे हैं, और सभी जेबकट हैं; तो जेब | खोलो। ध्यान से क्या होगा? जाकर गरीबों के झोपड़े में सेवा करो। नहीं कटेगी। फिर जेब किसकी काटिएगा? और क्या फायदा? कोई । रवींद्रनाथ ने गाया है कि मैं तो भगवान वहीं देखता हूं, जहां मतलब नहीं; बात बेकार है। जेब कट सकती है, इसलिए कि कोई मजदूर गिट्टी फोड़ रहा है। रवींद्रनाथ को पता नहीं है कि अगर जेबकट नहीं भी है। इसलिए जेबकट भी समझाता है कि जेब | मजदूर कभी ऐसा वक्त आ गया और उसने गिट्टी न फोड़ी, तो काटना बहुत बुरा है! समझाना चाहिए। रवींद्रनाथ भगवान को कहां देखेंगे। वे कहते हैं, मैं तो भगवान वहीं [175
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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