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________________ *गीता दर्शन भाग-42 ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। ही यह भ्रांति भी भर जाती है कि जिस मार्ग से मैं जा रहा हूं, वही एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ।। १५ ।। | सही है, वैसे ही उपद्रव शुरू हो जाता है। शायद इतने से भी उपद्रव अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् न हो, अगर मैं यह जानं कि यह मार्ग मेरे लिए सही है। मेरे लिए मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् । । १६ ।। | यही मार्ग सही है। लेकिन अहंकार यहीं तक रुकता नहीं। अहंकार कोई तो मुझ विराट स्वरूप परमात्मा को ज्ञान-यज्ञ के द्वारा | एक निष्कर्ष अनजाने ले लेता है कि जो मेरे लिए सही है, वही पूजन करते हुए एकत्व भाव से अर्थात जो कुछ है सब | सबके लिए भी सही है। वासुदेव ही है, इस भाव से उपासते हैं और दूसरे पृथकत्व ___ इसलिए धर्मों के नाम से जो उपद्रव है, वह धर्मों का नहीं, भाव से अर्थात स्वामी-सेवक भाव से और कोई-कोई | अहंकारों का उपद्रव है। मेरा अहंकार यह मानने को राजी नहीं होता अनेक प्रकार से भी उपासते हैं। | कि कोई और ढंग भी सही हो सकता है। यही मानने को तैयार नहीं क्योंकि श्रोत-कर्म अर्थात वेदविहित कर्म में हं, यज्ञ में हूँ, | होता कि मेरे अतिरिक्त कोई और भी सही हो सकता है। तो मेरा ही स्वथा अर्थात पितरों के निमित्त दिया जाने वाला अन्न मैं हूं, | रास्ता होगा सही, मेरी उपासना पद्धति होगी सही, मेरा शास्त्र होगा औषधि अर्थात सब वनस्पतियां में हं एवं मंत्र में हं.चूत में | सही। लेकिन मेरा यह सही होना तभी मुझे रस देगा, जब मैं सब हूं, अग्नि में हूं और हवनरूप क्रिया भी में ही हूं। दूसरों को गलत कर डालूं। और ध्यान रहे, जो दूसरों को गलत करने में लग जाता है, उसकी शक्ति और ऊर्जा उस मार्ग पर तो चल ही नहीं पाती, जिसे उसने गर्ग हैं अनेक, गंतव्य एक है। यात्रा-पथ बहुत हैं, यात्री | | सही कहा है; उसकी शक्ति और ऊर्जा उनको गलत करने में लग Oil भी बहुत हैं, यात्रा की विधियां भी बहुत हैं; लेकिन जाती है, जिन पर उसे चलना ही नहीं है। जब तक यात्री नहीं मिट जाता, यात्रा-पथ नहीं मिट | ___ यह उपद्रव और भी गहन हो गया, क्योंकि हमने धर्मों को जाता, यात्रा की विधियां नहीं मिट जाती, तब तक वह उपलब्ध नहीं| जन्मजात बना लिया। धर्म जन्मजात नहीं हो सकता। धर्म तो होता, जो गंतव्य है। व्यक्तिजात होगा। कोई व्यक्ति पैदाइश से न हिंद हो सकता है. न परमात्मा तक पहुंचने के लिए दो व्यक्तियों के लिए एक ही मार्ग मुसलमान हो सकता है; न ईसाई हो सकता है, न जैन हो सकता नहीं हो सकता, असंभव है, क्योंकि दो व्यक्ति भिन्न हैं। वे जो भी है। पैदाइश से तो केवल संभावना लेकर पैदा होता है कि धार्मिक करेंगे, भिन्न होगा; वे जैसे भी करेंगे, भिन्न होगा। और हमें यात्रा हो सकता है या अधार्मिक हो सकता है। वहां से शुरू करनी होती है, जहां हम हैं। ये दो संभावनाएं होती हैं, ये दो दरवाजे खुले होते हैं-धार्मिक मैं वहीं से यात्रा शुरू करूंगा, जहां मैं हूं। आप वहां से यात्रा | हो सकता है या अधार्मिक हो सकता है। लेकिन हिंदू या मुसलमान शुरू करेंगे, जहां आप हैं। हमारी यात्रा का प्रारंभिक बिंदु एक नहीं। या ईसाई पैदाइश से कोई नहीं होता। हो भी नहीं सकता। क्योंकि पिता हो सकता, क्योंकि दो व्यक्ति एक ही जगह खड़े नहीं हो सकते। का धर्म, या पिता की मान्यता खून से बच्चे में प्रवेश नहीं करती। लेकिन यात्रा का अंतिम पड़ाव एक हो सकता है, क्योंकि उस पड़ाव | और हम किसी आदमी की हड्डियों और खून की जांच करके नहीं कह पर व्यक्ति मिट जाते हैं। व्यक्तियों के मिटते.ही व्यक्तियों की | सकते हैं कि ये मुसलमान की हैं, कि हिंदू की हैं, कि जैन की हैं। भिन्नता मिट जाती है। एक व्यक्ति के शरीर की हम सारी जांच-पड़ताल कर डालें. उसके __जब तक मैं व्यक्ति हूं, तब तक मैं जो भी करूंगा वह भिन्न | जीवकोष्ठों में प्रवेश कर जाएं, उसके मूल बीज-कण में उतर जाएं, होगा, इस सत्य को न समझ लेने से मनुष्य के धर्म का इतिहास | उसकी भी जांच कर लें, तो धर्म का कोई भी पता नहीं चलेगा। अकारण ही रक्तपात से, अकारण ही हिंसा से, अकारण ही द्वेष लेकिन एक उपद्रव पैदा हुआ कि हमने धर्मों को जन्मजात कर से भर गया है। | लिया है। तो एक मुसलमान के बेटे को मुसलमान होना पड़ता है; प्रत्येक को ऐसी प्रतीति हो सकती है कि जिस मार्ग पर मैं जा रहा | | एक हिंदू के बेटे को हिंदू होना पड़ता है। जरूरी नहीं है कि यह बात हूं, वह सही है। इस प्रतीति में कोई भूल भी नहीं है। लेकिन जैसे उसके व्यक्तित्व के ढांचे से मेल खाए। तब खतरे होते हैं। तब 244
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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