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* गीता दर्शन भाग-4
हमारी चेतना ऐसी है, बहुत छिद्रों वाली । जितने ज्यादा छिद्र होंगे, उतना ही संकल्प मुश्किल हो जाएगा। दृढ़ संकल्प का अर्थ है, जिस बाल्टी में कोई छिद्र नहीं है। उसका अर्थ हुआ कि जो चेतना अपने संकल्प से अपने को भर लेती है, तो बिखर नहीं पाती, बिखराव नहीं होता। क्या करें कि ऐसा हो जाए?
यह तो हम जानते हैं कि छिद्रों वाली हमारी चेतना है। क्या करें? क्या करें कि ये छिद्र बंद हो जाएं? इनसे हमारा छुटकारा हो जाए! पहली बात, कभी भी बड़े संकल्प मत करें। बचपन से ही हम हर आदमी को बड़े संकल्प करवाने की शिक्षा देते हैं, उससे असफलता हाथ लगती है। बहुत छोटे संकल्प करें। असली सवाल संकल्प का बड़ा होना और छोटा होना नहीं है, असली सवाल संकल्प का सफल होना है। बहुत छोटे संकल्प करें, लेकिन संकल्पों को सफलता तक पहुंचाएं। बड़े संकल्प मत करें। क्योंकि अगर असफलता मिलती है, तो धीरे-धीरे भीतर हीनता गहरी होती चली जाती है। हर असफलता एक छिद्र बन जाती है। हर असफलता एक छिद्र बन जाती है। हर सफलता छिद्रों का रुकना बन जाती है। बहुत छोटे संकल्प करें, बड़े संकल्प का कोई सवाल नहीं है।
तिब्बत में, जब कोई साधु प्रवेश करता है किसी आश्रम में, तो बड़े छोटे संकल्पों की शिक्षा देते हैं, बहुत छोटा संकल्प | साधु को कह देते हैं, बाहर दरवाजे पर बैठ जाओ । आंख बंद रखना, और जब तक गुरु आकर न कहे, तब तक आंख मत खोलना ।
यह कोई बड़ा संकल्प नहीं है। कौन-सा बड़ा संकल्प है! आप कहेंगे, आंख बंद रख लेंगे। लेकिन बंद रखकर जब बैठेंगे दो-चार घंटे, तब पता चलेगा! कई बार बीच में धोखा देने का मन आएगा। कई बार जरा-सी आंख खोलकर देख लेने का मन होगा कि अभी तक गुरु आया कि नहीं आया ? कौन गुजर रहा है? नहीं तो कम से कम घड़ी का जरा-सा खयाल आ जाएगा कि कितना बज गया ? कितनी देर हो गई? और मन इतना बेईमान है कि आपको पता भी नहीं चलेगा और आप कर गुजरेंगे।
बहुत छोटा-सा संकल्प है, लेकिन बैठा हुआ है व्यक्ति, आंख बंद किए हुए बैठा है। छः घंटे बीत गए हैं, वह आंख बंद किए हुए बैठा है। कोई बड़ा काम नहीं करवाया गया है। लेकिन छः घंटे भी अगर उसने ईमानदारी से, आथेंटिकली, प्रामाणिक रूप से आंख बंद रखी है, तो छः घंटे के बाद उस आदमी की बाल्टी के कई छेद बंद हो गए होंगे। यह छोटा-सा प्रयोग है। कोई बहुत बड़ा प्रयोग
नहीं है। बहुत छोटा-सा प्रयोग है।
सब धर्मों के पास छोटे-छोटे प्रयोग हैं। वे छोटे-छोटे प्रयोग धर्म के लिए नहीं हैं, संकल्प के लिए हैं। समझ लें, कोई धर्म कहता है कि आज उपवास कर लें। कोई धर्म कहता है, आज यह नहीं खाएंगे। कोई धर्म कहता है, आज यह नहीं पहनेंगे। कोई धर्म कहता | है, आज रात सोएंगे नहीं। कोई धर्म कहता है, दिनभर खाना नहीं खाएंगे, रात खाना खाएंगे। इनका धर्म से कोई भी सीधा संबंध नहीं है। इन सबका संबंध संकल्प के, वह जो छिद्रों वाली बाल्टी है, उसको भरने से है।
लेकिन जैसा मैंने कहा कि आंख खोलकर धोखा देने का मन | होगा, वह तो समझ में भी आ जाएगा, क्योंकि आंख खोलनी पड़ेगी। अगर आपने एक दिन का उपवास किया है, तो वह उपवास | उसी वक्त टूट जाता है, जिस वक्त भोजन का खयाल आ जाता है और आप कल्पना में भोजन करना शुरू कर देते हैं। उसी वक्त टूट जाता है। फिर उपवास रखने का कोई मूल्य नहीं रह गया। कोई मूल्य नहीं रह गया।
और आमतौर से साधक, जो उपवास करते हैं, वे क्या करते हैं? जैसे जैनों में उपवास के संकल्प का बहुत प्रयोग किया गया है। तो जब वे उपवास करेंगे उनके पर्युषण में, तो उपवास करके मंदिर में पहुंच जाएंगे ! साधु की चर्चा सुनेंगे, शास्त्र सुनेंगे, मंदिर में बैठे रहेंगे। न भोजन दिखाई पड़ेगा, न भोजन की चर्चा होगी, न उसकी याद आएगी। इसलिए बचाव करेंगे वहां जाकर ।
यह धोखा है। भोजन करने या नहीं करने का मूल्य नहीं है; मूल्य तो संकल्प को जगाने का है। तो मैं आपसे कहता हूं कि जिस दिन उपवास करें, उस दिन तो चौके में ही अड्डा जमा दें; उस दिन चौका छोड़ना ही नहीं है । और जितनी अच्छी चीजें आपको पसंद हों, सब बनवाकर अपने चारों तरफ रख लें, और बीच में ध्यानस्थ होकर | बैठ जाएं। एक-एक चीज पर ध्यान दें, और भीतर भी ध्यान जारी रखें कि भोजन करने का खयाल उठे...।
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और आप हैरान होंगे कि मंदिर में भोजन का खयाल आ जाएगा, चौके में आएगा ! और ऐसा कोई नियम न बनाएं। करेंगे ही नहीं। अगर खयाल आता है, तो खयाल करने की बजाय भोजन कर लेना बेहतर है। क्योंकि खयाल ज्यादा गहरे जाता है, भोजन उतना गहरा नहीं जाता। भोजन शरीर में जाता है, शरीर से निकल जाता है; खयाल संकल्प में चला जाता है, और संकल्प में छेद कर जाता है। छोटे-छोटे संकल्पों की साधना से गुजरना जरूरी है। बड़े