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गीता दर्शन भाग-44
शरीर के इर्द-गिर्द होते हैं, बाकी ऊंचाइयां तो क्रमशः पानी पड़ती | | मिलने वाला रस मन को मिलने वाला रस है। वैश्य यश के लिए हैं। ध्यान रहे, सभी व्यक्ति शरीर से शूद्र जैसे पैदा होते हैं, यह | जीएगा, पद के लिए जीएगा। उनसे मिलने वाला रस, मन के लिए दुर्भाग्य नहीं है। दुर्भाग्य तो यह है कि अधिक लोग शूद्र ही मरते हैं, | मिलने वाला रस है। और वैश्य धन के लिए, पद के लिए, प्रतिष्ठा अधिक लोग मरते क्षण में भी शरीर के पास ही होते हैं। के लिए शरीर को भी गंवाने को तैयार हो जाएगा। शूद्र पद के लिए,
ध्यान रहे, अगर आपके भीतर से शूद्र विलीन हो गया हो, तो धन के लिए, प्रतिष्ठा के लिए शरीर को गंवाने को तैयार नहीं होगा। मृत्यु की आपको पीड़ा नहीं होगी; क्योंकि मृत्यु की पीड़ा शरीर के | शरीर उसके लिए मौलिक मूल्य है। शरीर के लिए वह सब कुछ मरने की पीड़ा है। और जिसके भीतर से शूद्र विलीन हो गया है, कर सकता है। लेकिन वैश्य शरीर को गंवाने को तैयार हो जाएगा। उसका शरीर का दृष्टिकोण ही बदल गया! अब वह भलीभांति । एक लिहाज से शूद्र शरीर से स्वस्थ होगा, वैश्य अस्वस्थ होने जानता है कि शरीर मैं नहीं हूं।
लगेगा। एक लिहाज से शूद्र के पास प्रकृति के संपर्क का द्वार बहुत संक्षिप्त में कहें, तो जो ऐसा मानता है कि मैं शरीर ही हूं, वह | स्पष्ट होगा, संवेदनशील होगा; वैश्य प्रकृति के साथ संवेदना खोने शूद्र है। मैं शरीर ही हूं, सब कुछ शरीर है, शरीर पर मैं समाप्त हो | | लगेगा। लेकिन प्रकृति से संवेदना उसकी कम होगी, लेकिन जाता हूं। शरीर ही मेरा जन्म है, शरीर ही मेरा जीवन, शरीर ही मेरी | | परमात्मा की तरफ वह एक कदम ऊपर उठ जाएगा। क्योंकि शरीर मृत्यु है। शरीर के पार मैं नहीं है, शरीर से भिन्न मैं नहीं हूं। शरीर से आत्मा तक जाने में बीच में मन के पड़ाव को पार करना जरूरी में मैं समाप्त हूं, शरीर मेरी सीमा है, यह शूद्र का अर्थ है। | ही है। मन से गुजरना ही पड़ेगा। शूद्र को आत्मा की यात्रा में किसी
शूद्र को इसलिए निम्नतम कहा है। निम्नतम कहने का कारण? | | न किसी क्षण वैश्य होना ही पड़ेगा। कारण इतना ही कि शूद्र होना सिर्फ जीवन की बुनियाद है, और | | सभी शूद्र की तरह जन्मते हैं; कुछ लोग वैश्य तक पहुंच जाते भवन उठाया जा सकता है। और भवन न उठे, तो बुनियाद बेकार हैं और समाप्त हो जाते हैं। वह भी पड़ाव है, मंजिल नहीं है। मन है। शरीर पर ही कोई समाप्त हो जाए, तो उसका जीवन व्यर्थ गया। मूल्यवान हो जाएगा शरीर से ज्यादा, और मन के रस शरीर के रस लेकिन हमारी दृष्टि ही शरीर पर है।
से ज्यादा कीमती मालूम पड़ने लगेंगे। भोजन उतना मूल्यवान नहीं तो कृष्ण कहते हैं कि शूद्र भी, जो केवल अपने को शरीर में ही रहेगा अब, कामवासना उतनी मूल्यवान नहीं रहेगी, जितना मन के . जिलाए रखते हैं, शरीर के आस-पास ही घूमते रहते हैं; वे भी | | रस मूल्यवान हो जाएंगे। पद है, प्रतिष्ठा है, यश हैं, गौरव है, अगर अनन्य भाव से मेरा स्मरण कर लें, तो अर्जुन, वे भी मुक्त गरिमा है, ये ज्यादा मूल्यवान होने लगेंगे। हो जाते हैं।
कृष्ण कहते हैं, वैश्य भी अगर मुझे स्मरण करें, तो वे भी मुझे कृष्ण, बिलकुल निम्नतम जो चित्त की दशा हो सकती है, उसके | उपलब्ध हो जाते हैं, अर्जुन! वे जो अभी मन में ही घिरे हैं और लिए भी कह रहे हैं कि उस दशा में भी, उस अंधकार में पड़ा हुआ आत्मा तक जिनका कोई कदम नहीं उठा है, वे भी अगर मुझे स्मरण भी अगर मेरा स्मरण करे, तो प्रकाश की किरण उस तक भी पहुंच | करें, तो उन तक भी मेरी किरण पहुंच जाती है। जाती है। खाई में पड़ा है, गहन अंधकार में पड़ा है कोई, चारों ओर | तीसरी कोटि है क्षत्रिय की। क्षत्रिय का अर्थ है, जो शरीर और अंधकार है, लेकिन अगर मुझे स्मरण करे, तो मेरी किरण वहां भी | मन दोनों के पार उठकर आत्मा में जीना शरू करे। शद्र और वैश्य पहंच जाती है। स्मरण ही मेरी उपस्थिति बन जाती है। शद्र को भी. की कोटि को भारत ने नीचा माना है। वह एक पलड़ा है, दो वर्गों वे कहते हैं, यह हो जाएगा।
का। क्षत्रिय और ब्राह्मण को श्रेष्ठतर माना है, वह दूसरा पलड़ा है। वैश्य दूसरी कोटि है। शूद्र उसे कहते हैं, जो शरीर के आस-पास | जो आत्मा में जीने की चेष्टा करे। शरीर का भी मूल्य नहीं है, मन जीता है। वैश्य उसे कहते हैं, जो मन के आस-पास जीता है। का भी मूल्य नहीं है, सिर्फ आत्मगौरव का ही मूल्य है। . इसलिए शूद्र की जो भी वासनाएं हैं, आकांक्षाएं हैं, बहुत सालिड, इसलिए क्षत्रिय धन पर भी लात मार देगा, शरीर पर भी लात बहुत स्थूल होंगी। वैश्य की जो कामनाएं और वासनाएं और | मार देगा, मन की भी चिंता छोड़ देगा, लेकिन आत्मगौरव उसके आकांक्षाएं हैं, वे मानसिक होंगी, सूक्ष्म होंगी।
लिए सबसे ज्यादा कीमती हो जाएगा। वह उसके आस-पास ही वैश्य धन के लिए जीएगा। धन सूक्ष्म बात है; और धन से | | जीएगा। आत्मगौरव के लिए वह सब कुछ गंवा सकता है, लेकिन
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