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________________ * जगत एक परिवार है* हो गई है। वर्तुल पूरा हो गया है। वह बच्चे ही जैसी नासमझियां आप आज जो भी हैं, वह आपके समस्त कलों का जोड़ है। और करेगा. लेकिन समझदारी के खयाल के साथ करेगा। कल आप जो होंगे, उसमें आज और जुड़ जाएगा। आप जो बोलेंगे, इसलिए बूढ़ा कठिन हो जाता है। बच्चे जैसी ही नासमझियां | | जो सोचेंगे, जो होंगे, जो व्यवहार करेंगे, जो करेंगे और जो नहीं करेगा। बच्चे जैसी ही जिद्द बूढ़े आदमी में वापस लौट आती है। करेंगे, वह भी—वह आपके समस्त सार से निकलेगा। आपके पूरे वैसा ही हठधर्मीपन आ जाता है। और एक और खतरा साथ हो | | जीवन के कर्मों के सार से निकलेगा। एक अर्थ में यह सेल्फ गया होता है, क्योंकि उसे खयाल होता है कि वह बच्चा नहीं है। प्रपोगेटिंग, स्वचालित व्यवस्था है। इससे अन्यथा होने का कोई • तो बूढ़े निरंतर कहते हैं कि मैं कोई बच्चा नहीं हूं। उसे खयाल | | उपाय नहीं है। अगर हम इस सारी बात को, पूरे जगत को एक यह होता है कि वह बूढ़ा है; उसे सारे जीवन का अनुभव है। और | व्यक्ति मान लें, तो पूरे जगत में भी ऐसा ही घटित होगा। उसे पता नहीं कि प्रकृति उसे वापस वर्तुल की पूर्णता की स्थिति पर हे अर्जुन, उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश ले आई है। क्योंकि मृत्यु वहीं होती है, जहां जन्म होता है। वह बिंदु स्थित रहते हुए वे कर्म मुझे नहीं बांधते हैं। बिलकुल एक है। इसलिए वापस प्रकृति उसको ला रही है। मगर | यह अंतिम सूत्र खयाल में ले लेने जैसा है। क्योंकि यह सवाल अनुभव, मन, स्मृति, उसे कहती है, वह सब जानता है; और | | उठ सकता है कि अगर व्यक्ति कर्म करता है, तो अपने कर्मों से व्यवहार वह ऐसा करता है, जैसे कुछ न जानता हो। बंध जाता है; और अगर परमात्मा भी जगत को रचता है, बनाता तो उसका व्यवहार उसके ही बच्चों को अखरने लगता है। उसके | है, मिटाता है, सम्हालता है, तो क्या ये कर्म उसे नहीं बांधते होंगे? बच्चों को लगता है कि काम तो ऐसे करते हो, जैसे कुछ न जानते | क्या ये कर्म उसका बंधन न बन जाते होंगे? क्या ये कर्म फिर उसके हो। और बातें ऐसी करते हो, जैसे सब जानते हो! इसलिए बच्चों | लिए भी कारागृह निर्माण न करते होंगे? अगर व्यक्ति बंध जाता को भी सहना मुश्किल हो जाता है। है, तो होगा वह महाव्यक्ति, लेकिन उसके महाकर्म भी तो उसे लेकिन भारत की समझ थी कि बूढ़े के साथ ऐसे ही व्यवहार | | बांधने वाले सिद्ध होंगे। करना जैसे वह बच्चा है। उसकी हठधर्मी सही है। वह गलत हो, | | इसलिए कृष्ण ने कहा है कि यह सब करता हूं, अनासक्त। इससे कोई चिंता मत करना। वह ठीक हो कि गलत हो, हमेशा उसे किस कर्म में व्यक्ति अनासक्त रह सकता है? सिर्फ व्यक्ति ठीक मान लेना। वह गलत भी करे, तो भी उसके चरणों में सिर रख | | खेल में अनासक्त रह सकता है, बाकी सभी कर्मों में आसक्त हो देना। वह वापस लौटता हुआ वर्तुल है। बच्चे से ज्यादा दयनीय है। | जाता है। सिर्फ खेल में अनासक्त रह सकता है। हम तो खेल में भी बच्चे में तो अभी शक्ति जगेगी। अभी तो बच्चा शक्ति का स्रोत | नहीं रह सकते हैं। क्योंकि हमारे लिए खेल भी कर्म बन जाता है। है। बूढ़ा तो चुक गया। उसकी शक्ति खो गई। इसलिए पूरब ने बूढ़े । अगर दो आदमियों को ताश खेलते देखें, तो उनके माथे पर ऐसी को जो आदर दिया है, उसके पीछे बड़ी सूझ है, खयाल है, कारण | | सिकुड़नें पड़ी होती हैं, जैसे जीवन-मरण का सवाल है। दो आदमियों है। सारी गतियां वहीं शुरू होती हैं, वहीं अंत होती हैं। | को शतरंज खेलते देखें, तो जैसे इसी खेल पर सब कुछ निर्भर है। कृष्ण कहते हैं, सब मुझमें लीन हो जाता है और फिर मुझसे पुनः इस जगत का पूरा भविष्य, इनके इस खेल पर निर्भर है! यह जो रचा जाता है। यह रचना जगत के कर्मानुसार, भूतों के कर्मानुसार | शतरंज के सिपाहियों को यहां से वहां उठाकर रख रहे हैं, सारे प्राण घटित होती है। उनके खिंचे हैं! उनका ब्लड प्रेशर नापें, बढ़ जाएगा। उनकी छाती इस संबंध में भी पूर्वीय चिंतन अति वैज्ञानिक है। क्योंकि पूरब | | की धड़कन बढ़ जाएगी। उनका एक घोड़ा मरेगा, कि एक हाथी मानता है, अकारण कुछ भी घटित नहीं होता। जो भी होगा, वह | मरेगा, तो न मालूम कितनी पीड़ा और कितना क्या हो जाएगा! कारण से बंधा होगा। अगर इस पूरे जगत को हम एक व्यक्ति मान ___ इस शतरंज के खेल पर बैठा हुआ आदमी भी खेल में नहीं है। लें, तो इस पूरे जगत के एक कल्प का जो कर्म होगा, वही कर्म | | यह भी कर्म हो गया! और अगर हार जाएगा, तो रातभर सो नहीं इसके नए कल्प की शुरुआत होगी। यह विशाल है बात, और सकेगा। रातभर शतरंज चलती रहेगी। फिर रखता रहेगा, सोचता मस्तिष्क पकड़ नहीं पाएगा। लेकिन बूंद को भी समझ लें, तो सागर रहेगा। शतरंज के जो बड़े खिलाड़ी हैं, वे कहते हैं कि शतरंज में समझ में आ जाता है। वही जीत सकता है, जो पांचवीं चाल तक को पहले से सोच 207]
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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