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गीता दर्शन भाग - 4
फिर उनका निर्माण करता हूं।
ध्यान रहे, यह निर्माण भी विकास की यात्रा है। यह निर्माण भी फिर पुराने जैसा नहीं होता। यह निर्माण भी और एक अगला कदम है । यह फिर से निर्माण, फिर एक अगला कदम है।
अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को अंगीकार करके, स्वभाव के वश से परतंत्र हुए इस संपूर्ण भूत समुदाय को बारंबार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूं।
और जो भी रचना घटित होती है, कृष्ण कह रहे हैं, वह रचना प्रत्येक के कर्मानुसार घटित होती है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति जो करता है, वैसा ही हो जाता है। और प्रत्येक भूत समुदाय जो-जो कर गुजरता है, वही करना उसकी आत्मा बनती चली जाती है। और वही आत्मा उसके नए जन्म का रूप देती है। वही आत्मा, वही कर्मों का समुचित रूप उसके नए जन्म का ब्लू प्रिंट है। न केवल व्यक्ति के लिए, वरन समस्त जगत के लिए भी।
यह समस्त जगत जब पुनः निर्मित होगा, तो इस जगत ने जो भी किया, जो भी पाया, जो भी अनुभव, जो भी यात्रा का फल, वह सब का सब पुनः बीज बन जाता है।
जब एक वृक्ष में बीज लगते हैं, तो क्या होता है ? वृक्ष का सारा अनुभव, वृक्ष की सारी यात्रा, वृक्ष का सारा जीवन बीज में पुनः प्रविष्ट हो जाता है । सार में, इसेंस में सब बीज में छिप जाता है। फिर बीज जमीन में पड़ता है। फिर वृक्ष का जन्म होता है।
इस संबंध में एक बात और समझ लेनी जरूरी है कि भारतीय, हिंदू चिंतन जगत को एक वर्तुलाकार यात्रा मानता है। ईसाई चिंतन जगत की यात्रा को रेखाबद्ध यात्रा मानता है। ईसाई चिंतन का खयाल है कि समय एक रेखा में चलता है; सीधा, बिलकुल सीधा – लीनियर कंसेप्ट आफ टाइम - सीधा । लेकिन हिंदू चिंतन मानता है कि समय एक वर्तुल में चलता है, सर्कुलर । जैसे गाड़ी का चाक घूमता है, ऐसा समय घूमता है।
अब यह आश्चर्य की बात है कि हिंदू चिंतन की जो धारणा है, वही वैज्ञानिक है; क्योंकि इस जगत में कोई भी गति सीधी नहीं होती। तो समय की भी होने का कोई कारण नहीं है। इस जगत में समस्त गतियां सर्कुलर हैं। चाहे जमीन सूरज का चक्कर लगाती हो, और चाहे सूरज महासूर्यों का चक्कर लगाता हो; चाहे यह आकाश के इतने अनंत-अनंत तारे चक्कर लगाते हैं किसी धुरी का; चाहे एक परमाणु हम तोड़ें, तो परमाणु इलेक्ट्रान और न्यूट्रान हैं, चक्कर लगाते हैं। जहां भी गति है, गति सर्कुलर है।
और अब तक जगत में ऐसी कोई गति नहीं मिली है, जो लीनियर हो, जो रेखाबद्ध हो । समय की गति तो देखी नहीं जा सकती, समय | को पकड़ा नहीं जा सकता। अगर समय की गति पकड़कर हम नाप-जोख करते, तो तय हो जाता कि ईसाई जैसा सोचते हैं, वह सही है; या हिंदू जैसा सोचते हैं, वह सही है! लेकिन समय को तो पकड़ा नहीं जा सकता, समय को देखा नहीं जा सकता, फिर कैसे तय करें?
तो हिंदू का चिंतन गहरा मालूम पड़ता है। वह कहता है, तुम मुझे कोई एकाध भी ऐसी गति बता दो, जो पकड़ी जा सकती हो, जो सीधी हो, रेखाबद्ध हो। जितनी गतियां मनुष्य को पता हैं, सभी वर्तुल हैं। तो हिंदू कहता है, फिर जो गति हमें दिखाई नहीं पड़ती, ज्यादा उचित है कि हम मानें, वह भी वर्तुल होगी। कोई कारण नहीं है उसके | रेखाबद्ध होने का। हिंदू मानता है कि गति मात्र वर्तुलाकार है।
बच्चा है, यह वर्तुल का पहला बिंदु है। इसलिए अक्सर बूढ़े जो हैं, फिर बच्चों जैसे हो जाते हैं— जैसे। बच्चे नहीं हो जातें, बच्चों | जैसे हो जाते हैं - निरीह, असहाय – पुनः | एक वर्तुल पूरा हुआ।
हिंदू कहता है कि बच्चे और बूढ़े के बीच सीधी रेखा नहीं है; | वर्तुलाकार है । इसलिए पैंतीस साल के करीब आदमी वर्तुल के शिखर पर होता है, फिर गिरना शुरू हो जाता है। फिर वापस आने लगा। कब्र में पहुंचते-पहुंचते वह वहीं पहुंच जाता है, जहां अपने घर के झूले में था - वापस । और अगर हम गौर से देखें, तो दिखाई पड़ेगा कि बूढ़ा धीरे-धीरे, धीरे - धीरे बच्चे जैसा निरीह होता चला | जाता है; बच्चे से भी ज्यादा निरीह । क्योंकि बच्चे पर तो कोई दया भी करता था। अब उस पर कोई दया करने वाला भी नहीं मिलता। क्योंकि लोग समझते हैं, वह बूढ़ा है, उस पर क्या दया करनी !
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इसलिए भारत ने जो खयाल दुनिया को दिया था कि बच्चे से भी ज्यादा चिंता वृद्ध की करना, उसके पीछे कारण था। उसके पीछे कारण था कि वृद्ध दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन वह बच्चे जैसा हो गया है। बच्चे को हम माफ कर देते हैं, अगर वह नाराज हो । बूढ़े को हम माफ नहीं कर पाते, अगर वह नाराज हो ।
लेकिन भारत की बहुत गहरी समझ थी, और वह यह थी कि बच्चे को तुम चाहे माफ मत भी करना, क्योंकि अभी बच्चे को कुछ पता भी नहीं है कि माफ किया जाता है कि नहीं किया जाता है, लेकिन बूढ़े को तो बिलकुल माफ कर देना । माफ ही मत कर देना, मान लेना कि वही ठीक है, तुम गलत हो । क्योंकि उसे भी खयाल है कि वह बूढ़ा है, लेकिन उसकी प्रकृति अब बिलकुल बच्चे जैसी
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