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________________ * गीता दर्शन भाग-4* क्योंकि जिस पर निकलता है, अकेला वही उसका कारण नहीं होता। | वापस भीतर लौट आए ध्यान के साथ, तो वही ब्रह्मचर्य बन जाती और पच्चीस लोगों का क्रोध भी उसमें जुड़ा होता है, जो उन पर | है। और जिसने कामवासना जानी, उसने फ्रस्ट्रेशन के अतिरिक्त, नहीं निकल पाया और इस पर निकलता है। इसलिए जिस पर विषाद के अतिरिक्त कभी कुछ नहीं जाना। और जिसने कामवासना निकलता है, वह सदा सोचता है कि इतनी छोटी-सी बात और का अपने पर लौटाना जाना, उसने वह जाना है जिसे ज्ञानी ब्रह्मचर्य इतना क्रोध! जस्टीफाइड नहीं मालूम पड़ता उसे। हमें भी मालूम कहते रहे हैं। अपूर्व है उसकी शांति, अपूर्व है उसकी शक्ति, अपूर्व नहीं पड़ेगा पीछे सोचने पर। इतनी-सी बात थी, इतने क्रोध की क्या | | है उसका आनंद। उसके आनंद को मापने का कोई उपाय नहीं है। जरूरत थी! लेकिन बहुत-सा क्रोध जो इकट्ठा था बांध बांधकर, लेकिन लौटती हुई ऊर्जा में गुणात्मक अंतर होता है। ऊर्जा की वह समय की तलाश में था कि जब भी गड्डा मिल जाएगा, बांध को | | दिशा सब कुछ है। क्योंकि जब ऊर्जा मुझ से बाहर जाती है, तो मुझे तोड़ देंगे और मुक्त हो जाएंगे। गरीब कर जाती है। मेरी ही ऊर्जा जब मुझ से बाहर जाती है, माई छोटे-छोटे पापी बड़े पाप कभी नहीं कर पाते। और बड़े पापी | | ओन एनर्जी, जब भी बाहर जाती है, तो मुझे दरिद्र कर जाती है। मैं अक्सर वे ही लोग होते हैं, जो छोटे-छोटे पाप करने से अपने को दीन हो जाता हूं। वह चुक जाती है, और मैं उतना गरीब हो जाता हूं। बचाते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि छोटे-छोटे पाप करने के अभ्यास जब मेरी ऊर्जा इंद्रियों के द्वार के पास आकर, वापस लौटकर वर्तुल से कोई बड़ा पापी होता है, खयाल रखना। छोटे-छोटे पाप करने बना लेती है, सर्किल पूरा कर लेती है, मुझ पर वापस लौट आती है, वाला कभी बड़ा पापी नहीं हो पाता। बड़ा पापी होने की आकांक्षा तो मैं अनंत गुना धनी हो जाता हूं। और जो अपनी ही ऊर्जा का वर्तुल हो, तो छोटे-छोटे पाप करना बंद कर दें। फिर एक दिन अपने आप बना लेता है, वही व्यक्ति संयम को उपलब्ध होता है। . विस्फोट हो जाएगा। और बड़ा पाप घटित हो जाएगा। संयम का अर्थ है, स्वयं की ऊर्जा का बन गया वर्तुल। खुद की चेतना भी ध्यान की तरफ इसी तरह बहती है, जैसे गड्ढे की तरफ ऊर्जा एक वर्तुल में घूमने लगी, एक सर्किल में। अब बाहर जाने पानी बहता है। एक नेचुरल, एक निसर्ग का नियम है कि चेतना | का कोई उपाय न रहा। अब ऊर्जा कहीं भी डिसीपेट, कहीं भी बिखर ध्यान की तरफ बहती है। जहां ध्यान, वहीं चेतना का तीर सरकने नहीं सकती। अब ऊर्जा जितनी भी बढ़ती जाएगी, भीतर होती लगता है। अगर आप, कोई गाली दे, उस वक्त गाली देने वाले पर | जाएगी। और जैसे-जैसे यह वर्तुल बनता है, वैसे-वैसे ऊर्जा ऊपर । ध्यान न रखें, गाली सुनने वाले पर ध्यान रखें। आप अचानक | उठनी शुरू हो जाती है। और धीरे-धीरे जैसे हम मंदिर के ऊपर पाएंगे, इंद्रिय का द्वार बंद हो गया और चेतना वापस भीतर लौट || शिखर बनाते हैं वे इसी के प्रतीक में बनाए गए शिखर हैं। छोटा गई। जब कोई आपको चांटा मारे, तो चांटा मारने वाले के हाथ पर | | होता जाता है मंदिर का बुर्ज, ऊपर जाकर स्वर्ण-शिखर लग जाता रखें। चांटा जिसे मारा गया है, उस पर ध्यान रखें। और है। छोटा होता जाता है। जैसे-जैसे ऊर्जा भीतर इकट्ठी होती है, आप अचानक पाएंगे कि वह आदमी भी खो गया, जिसने चांटा वैसे-वैसे वर्तुल छोटा होता जाता है, सघन होता जाता है, कंडेंस्ड मारा था, वह बाहर जाता क्रोध भी विलीन हो गया। और चेतना होता जाता है। और एक क्षण आता है, जब ऊर्जा स्वर्ण-शिखर बन अपने भीतर लौट गई। जाती है। फिर ऊर्जा ऊपर की तरफ ऊर्ध्वगति को उपलब्ध होती है। और एक बार अगर आपको यह अनुभव हो जाए कि जो ऊर्जा, संयम का अर्थ है, स्वयं की ऊर्जा का बनाया गया वर्तुल। जो शक्ति क्रोध बनकर बाहर जा रही थी, वह बाहर नहीं गई, बल्कि असंयम का अर्थ है, स्वयं की ऊर्जा का टूटा हुआ वर्तुल। उस टूटी गई. तो आप हैरान हो जाएंगे। बाहर जाती हई जगह से ही लीकेज है। जहां वर्तल टटता है. वहीं से लीकेज है. क्रोध की ऊर्जा पीड़ा में ले जाती है, वही ऊर्जा जब भीतर की तरफ | वहीं से शक्ति बिखर जाती है और खो जाती है। जैसे शार्ट सर्किट लौटती है, तो क्वालिटेटिवली बदल जाती है, उसका गुणधर्म बदल | हो जाए बिजली का, वहां से ऊर्जा बिखरने लगती है। और हमारी जाता है; वही क्षमा बन जाती है। सारी इंद्रियों के द्वार से हम सिर्फ ऊर्जा को बिखेरते हैं, खोते हैं। और जिसने क्षमा जानी, उसके आनंद का कोई हिसाब नहीं। | कृष्ण जैसे व्यक्ति के लिए संयम का अर्थ है, इस ऊर्जा का स्वयं और जिसने क्रोध जाना, उसके पश्चात्ताप का कोई अंत नहीं। । | में ही रमण करना, स्वयं में ही थिर हो जाना। अगर कामवासना मन को पकड़ती हो और बाहर न जाकर | | तो इस सीक्रेट को, इस राज को, इस गुर को समझ लें। जब भी 64
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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