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* योगयुक्त मरण के सूत्र *
कोई विषय आकर्षित करे, तब ध्यान विषय पर न दें, तत्काल स्वयं है। उसके घटने का कारण है। क्योंकि उनकी पूरी की पूरी सेक्स पर दें और स्वयं की चेतना पर दें। उसी क्षण एक क्रांति मालूम | | सेंटर की जो संभावना थी, वह हटकर मस्तिष्क में केंद्रित हो गई पड़ेगी। भीतर कोई चीज जा रही थी बाहर; लौट पड़ी; टर्न है। तो जब वे सोचते हैं, तब वे बड़े शक्तिशाली मालूम पड़ते हैं। अबाउट; बिना कुछ किए। अपने भीतर अनुभव होगा, कोई शक्ति लेकिन जब शक्ति को प्रकट करने का अवसर हो, तब वे एक दम बाहर जाती थी, वापस लौट गई। और वापस लौटकर जब वह | शक्तिहीन हो जाते हैं। स्वयं पर आती है, तो अपूर्व-अपूर्व साक्षात्कार होता है अपनी ही | हमारे सारे चक्रों के जो-जो विभाजन हैं, वे सबके सब ऊर्जा का।
कनफ्यूज्ड हैं, एक-दूसरे में प्रवेश कर गए हैं। कोई किसी की इस संयम को जो उपलब्ध है; और भाव को, मन को जिसने | | सुनता नहीं मालूम पड़ता। और कोई चक्र किसी का काम करता है, हृदय में स्थिर कर लिया है। और ऐसी ऊर्जा होगी, तो भाव अपने | | कोई चक्र किसी का काम करता है। सब उधार हो गया है। तो हम आप हृदय में स्थिर हो जाता है। और प्राण जिसका मस्तिष्क में ठहर | मस्तिष्क से भावना तक करने पर उतर जाते हैं। मस्तिष्क भावना गया है।
नहीं कर सकता है। हृदय विचार नहीं कर सकता है। इन दो बातों को ठीक से समझ लें।
जो जिस चक्र का काम है, अगर उस पर ही पहुंच जाए, तो भाव का अर्थ है, फीलिंग, संवेदना। वह जो हमारे भीतर व्यक्तित्व एकदम संतुलित हो जाता है। और जब ऊर्जा संयम को अनुभव करने की क्षमता है, वह। वह हृदय-क्षेत्र में स्थिर हो जाती उपलब्ध होती है, तो प्रत्येक चक्र सिर्फ अपने ही काम को करता है। है. जब कोई संयम को उपलब्ध होता है। क्यों ऐसा होता है? । अभी पश्चिम में एक बहत बड़ा साधक, महायोगी था, जार्ज
हमारे शरीर के भीतर प्रत्येक अनुभूति, प्रत्येक अनुभव के लिए गुरजिएफ। तो वह कहता था, अगर तुम इतना ही कर लो कि अलग-अलग केंद्र हैं, सेंटर्स हैं, चक्र हैं। और जब भी किसी चक्र तुम्हारा प्रत्येक चाशुद्ध हो जाए, कि कामवासना का चक्र केवल की ऊर्जा किन्हीं दूसरे चक्रों में प्रवेश कर जाती है, तो हम | | कामवासना का ही काम करे, तो भी तुम महाजीवन को उपलब्ध करीब-करीब पागल की तरह जीते हैं। और अभी हमारी हालत | हो जाओगे। ऐसी ही है। और अभी हमारी हालत ऐसी ही है।
लेकिन हमारे भीतर सब कनफ्यूज्ड है। हमारी हालत ऐसी है, जैसे एक आदमी मुंह से भोजन करे, समझ में आता है। दांतों से जैसी किसी एक ऐसी मिलिटरी की टुकड़ी की, जिसमें पहरेदार चबाएं; गले से गटके; पेट से पचाए–समझ में आता है। लेकिन सेनापति बनकर बैठ गया हो; जिसमें सेनापति पहरेदार के पैरों के वह आदमी बैठकर केवल खाने का विचार करे, तो खाने का जो भी पास बैठा हो; जिसमें जिनको आज्ञा देनी चाहिए, वे आज्ञा ले रहे यंत्र है, वह बिलकुल उपयोग में नहीं आएगा; और मस्तिष्क, जहां हों; जिनको आज्ञा लेनी चाहिए, वे आज्ञा दे रहे हों; और किसी को से खाना खाया नहीं जा सकता, वह खाने के काम में लग जाएगा। पता न हो कि कौन कौन है। सब विक्षिप्त हो जाए। ऐसी हमारे चित्त तो भोजन करना सेरिब्रल हो जाएगा, मस्तिष्कीय हो जाएगा। की, चेतना की, हमारे व्यक्तित्व की दशा है। मस्तिष्क भोजन कर नहीं सकता, लेकिन भोजन करने के भ्रम में पड़ | कृष्ण कहते हैं, जब कोई संयम को उपलब्ध हो और भाव सकता है। और भ्रम अगर भारी हो जाए, तो व्यक्तित्व का सब हृदय-देश में स्थित हो जाए, मन हृदय-देश में ठहर जाए और प्राण विखंडित हो जाता है। और ऐसे भ्रम में हम जीते हैं।
मस्तक में...। __ कामवासना का केंद्र है। लेकिन लोग मस्तिष्क में कामवासना । ये दो बातें हैं। भाव, अनुभव करने की जो प्रतीति है; क्या कभी को धीरे-धीरे, सोच-सोचकर, सोच-सोचकर, कामवासना के केंद्र | | आपने खयाल किया है कि आप अनुभव कहां से करते हैं? से हटाकर मस्तिष्क में प्रवेश कर देते हैं। तो मनोचिकित्सकों के | | आकाश में पूर्णिमा का चांद है, आप उसके नीचे खड़े हैं। आंख पास ऐसे लोग आते हैं, जो कहते हैं, स्वप्न में तो मैं बहुत पोटेंट | उठाकर आकाश को देखते हैं, तो क्या आपका मस्तिष्क कहता है मालूम पड़ता हूं, बहुत वीर्यवान मालूम पड़ता हूं। जब विचार करता | कि बहुत सुंदर या आपके हृदय के पास कोई स्फुरणा होती है ? यह हूं, तो इतनी काम ऊर्जा मालूम होती है! लेकिन जब स्त्री के निकट आपको जांचना पड़े। पहुंचता हूं, तो एकदम इंपोटेंट, निर्वीर्य हो जाता हूं। वह रोज घटता और आप हमेशा पाएंगे, सौ में निन्यानबे मौके पर, कि यह
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