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________________ ४जीवन के ऐक्य का बोध-अ-मन में * मुश्किल पड़ेगा। लेकिन जिनकी समझ में पड़ जाए, वे ही केवल शंकर का शिवलिंग रखा है। कभी आपने खयाल किया कि शंकर समझदार हो पाते हैं। मृत्यु के देवता हैं, विध्वंस उनके हाथ में है। ब्रह्मा बनाता है, विष्णु प्रयोजन इतना ही है कि जिसे हम विपरीत कहते हैं, वह विपरीत सम्हालता है, शंकर विध्वंस में ले जाते हैं। शिव विध्वंस के देवता नहीं है। विपरीत हमारी भ्रांति है। और जहां-जहां विरोध दिखे, हैं। लेकिन जो शिवलिंग रखा है, वह फैलिक सिंबल है, वह वहां-वहां खोजेंगे, तो नीचे एकता की धारा मिल जाएगी। कांटा है, | जननेंद्रिय का सिंबल है, वह सृजन का प्रतीक है। वह जो शिवलिंग गुलाब है। फूल खिला है, कांटा लगा है। आप फूल तोड़ने जाते है, वह जन्म और जीवन का प्रतीक है। और शंकर देवता हैं विध्वंस हैं, कांटा हाथ में छिद जाता है; लहू की धार फूट पड़ती है। के; उनके काम जो जिम्मा है, वह है मिटाने का। स्वभावतः, आपको लगेगा कि फूल और कांटा दुश्मन हैं। कहां | ___ बड़ी हैरानी, बड़े पागल लोग थे ये हिंदू! जब पहली दफा फूल, कहां कांटा! गए थे फूल तोड़ने, लग गया कांटा! | पश्चिम में शंकर का यह प्रतीक पहुंचा, तो उन्होंने कहा, ये कैसे अगर आप किसी को कांटा भेंट करने जाएं, तो वह भी चौंकेगा | | लोग हैं! विध्वंस का देवता है, जिसे कि दुनिया को नष्ट करना है, कि आपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया है! भेंट तो फूल किए | और यह फैलिक सिंबल है! और यह जननेंद्रिय का सिंबल है, जाते हैं। कभी देखें; गुलाब के कांटे तोड़कर किसी को भेंट करने | | जीवन का प्रतीक; जहां से समस्त जीवन जन्मता है और विकसित चले जाएं। फिर दुबारा वह आपको दिखाई भी नहीं पड़ेगा। आपसे | होता है! यह किस प्रकार का प्रतीक है? यह प्रतीक होना ही नहीं बचकर निकलने लगेगा। जिस रास्ते आप गुजरते हैं, उस रास्ते | चाहिए। यह प्रतीक शंकर के साथ मेल नहीं खाता। नहीं गुजरेगा। खाता भी नहीं है। अगर हम भी सोचेंगे गणित से, तो मेल नहीं लेकिन फूल और कांटे क्या दुश्मन हैं? तो फिर जरा गुलाब की | खाता। अगर विध्वंस का देवता है, तो कुछ विध्वंस की बात होनी शाखा में नीचे उतरें। शाखा में बहती हुई रसधार से पूछे कि यह | चाहिए थी। यह तो जीवन है। जीवन का प्रतीक चुना है और विध्वंस फूल और यह कांटा क्या अलग-अलग जगह से आते हैं? का देवता है। कारण वही है। वही रस कांटा बनता है, वही रस फूल बनता है। ये दोनों कृष्ण कहते हैं, मैं ही अमृत और मैं ही मृत्यु हूं। अलग-अलग हमें दिखाई पड़ते होंगे, ये अपने में अलग-अलग ये विपरीत प्रतीक हमें मालूम पड़ते हैं, लेकिन भारत ने सदा यह नहीं हैं। और गुलाब के सब कांटे तोड़ डालें, तो फूल भी उदास हो | कोशिश की है कि विपरीत के भीतर जो एक धारा है, वह खयाल जाएंगे; क्योंकि भीतर की रसधार को चोट लगेगी। वही रसधार तो में आए। इसलिए जानकर विध्वंस के देवता के सामने सृजन का है। और जब गुलाब के फूल तोड़ लिए जाते हैं, तो कांटे भी पीड़ा प्रतीक रखा है; जानकर, सोचकर, बहुत खोजकर। यही प्रतीक अनुभव करते हैं। क्योंकि वे तो संयुक्त हैं, अस्तित्व इकट्ठा है। मन | उनका प्रतीक हो सकता है। क्योंकि जिसे विध्वंस की अंतिम सीमा बांटता है; फिर फूल अच्छे हो जाते हैं, कांटे बुरे हो जाते हैं। फिर छुनी है, उसे जन्म के पहले क्षण में भी उपस्थित होना चाहिए। जिसे कांटे को कोई भेंट नहीं दे सकता, फूल को ही भेंट देना पड़ता है। | मृत्यु का रास्ता बनना है, उसे जन्म का भी द्वार बनना चाहिए। लेकिन अस्तित्व कांटे और फूल एक साथ उगाए चला जाता है। | इसलिए दोनों विपरीत—मृत्यु उनका काम, जन्म उनका प्रतीक। अस्तित्व एक साथ दोनों को जीवन दिए चला जाता है। यहां भी इतनी ही बात होती, तो भी आसान था, और भी कठिन कृष्ण कहते हैं, मैं ही हूं अमृत, मैं ही मृत्यु हूं।' सूत्र है। जब पहली बार भारतीय चिंतन की कुछ झलक भारत के बाहर कृष्ण कहते हैं, एवं सत और असत भी मैं ही हूं। फैलनी शुरू हुई, तो जो सबसे बड़ी हैरानी अनुभव होनी | सत का अर्थ है, जो है; और असत का अर्थ है, जो नहीं है। जो स्वाभाविक थी, वह यही थी। सबसे ज्यादा हैरान करने वाला है, वह तो मैं हूं ही; जो नहीं है, वह भी मैं ही हूं! यह आखिरी पश्चिम में जो हमारा प्रतीक है, वह महादेव का, शिव का है। कभी | कंट्राडिक्शन है। तर्क में, चिंतन में, विचार की पद्धति में, जो है और आपने खयाल नहीं किया होगा; क्योंकि न हम देखते, न हम | जो नहीं है, यह सबसे बड़ा विरोध है। होना और न होना, यह सबसे सोचते, न हम खोजते! बड़ी खाई है। इससे बड़ी कोई भी खाई नहीं हो सकती। आपने देखा है, जगह-जगह सड़क के किनारे एक वृक्ष के नीचे तो कोई मान भी ले सकता है, थोड़ा कल्पना को फैलाए तो मान |279
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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