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________________ * गीता दर्शन भाग-44 ही न पाए, कुछ बदल जाए, कुछ नया हो जाए। बुद्ध और महावीर ने एक अनूठा प्रयोग अपने साधकों के लिए लेकिन जैसा हमारा मन है, वह पुनरुक्त करता है। मन | | खोजा था। वे तब तक किसी व्यक्ति को साधना में नहीं ले जाते थे, रिपिटीटिव है। मन की कुछ बातें मैंने आपसे पीछे कही हैं। यह बात | | जब तक उसको पिछले जन्मों का स्मरण न करा दें। भी आप खयाल में ले लें कि मन एक रिपीटीशन, एक पनरुक्ति | बुद्ध से कोई पूछता है कि पिछले जन्म को स्मरण करने से क्या है। वही-वही रोज करता है। एक घेरा बना लेता है। जैसे छोटे प्रयोजन है? मैं तो अभी शांत होना चाहता है. उसका मझे कोई बच्चों की रेलगाड़ी होती है, एक गोल पटरी पर चलती है। चाबी | | रास्ता बताइए। बुद्ध ने कहा कि इसलिए, कि पहले भी पिछले भर दी, पटरी का चक्कर लगा लेती है। चाबी चुक गई, फिर चाबी | | जन्मों में तू यह बात किन्हीं और बुद्धों से कह चुका है कि मैं शांत भर दी, फिर पटरी का चक्कर लगा लेती है। हमारी चाबी चुकती | | होना चाहता हूं, मुझे कोई रास्ता बताइए। और रास्ते तुझे पिछले रहती है। रोज हम भरते रहते हैं भोजन से। चक्कर रोज पूरा होता | जन्मों में भी बताए गए हैं, कभी तूने उनका पालन नहीं किया। तो रहता है। फ्यूल डाल दिया, ईंधन डाल दिया शरीर में, वह अपना | तू मेरा समय नष्ट मत कर। मैं तुझे रास्ता बताऊंगा; पहले भी दूसरे रोज का चक्कर पूरा कर लेता है। बुद्धों से तूने रास्ते इसी तरह पूछे हैं, कभी तूने उनका पालन नहीं कभी आप अपने चौबीस घंटे के वर्तुल का अध्ययन करें, तो | | किया। तू सिर्फ अपनी आदत दोहरा रहा है। तू वही करेगा, जो तूने आप बहुत चकित हो जाएंगे कि रोज-रोज आप वही करते हैं। | पीछे किया था। इसलिए पहले मैं तुझे याद दिला दूं। तू अपने रोज-रोज! दो-चार जन्मों का पहले स्मरण कर ले, ताकि तुझे साफ हो जाए मेरा मतलब यह नहीं है कि रोज आप अलग-अलग दफ्तर में | | कि तू उसी वर्तुल को फिर से तो नहीं दोहरा रहा है! . जाएं। यह भी मतलब नहीं है कि रोज-रोज नई दुकान खोलें। दुकान | उस आदमी को बात समझ में पड़ी। एक वर्ष तक वह बुद्ध के तो वही रहेगी, दफ्तर वही रहेगा। नहीं, लेकिन रोज-रोज आपके पास पिछले जन्मों के स्मरण के लिए रुका। हैरान हुआ। पिछले मन की जो चित्त-दशाएं हैं, वे भी वही होती हैं। चौबीस घंटे में | | जन्म में भी जब उसकी पत्नी मरी थी, तभी वह एक बुद्धपुरुष के आपको कितनी बार क्रोध करना है, उतनी बार आप रोज कर लेते | पास गया था! उसके पहले भी उसकी पत्नी जब मरी थी, तब वह हैं। कितनी बार उत्तेजित होना है, आप उतनी बार उत्तेजित हो लेते | एक बुद्धपुरुष के पास गया था! और अभी भी इस जन्म में उसकी हैं। कितनी बार दुखी होना है, आप उतनी बार दुखी हो लेते हैं। कई पत्नी मर गई थी, तो वह फौरन बुद्ध के पास आ गया था, कि मेरा बार आप चकित भी होते हैं कि अभी तो दुख का कोई कारण नहीं | | मन बड़ा अशांत है, मुझे शांति चाहिए! और मजा यह है कि पहले था, मैं दुखी क्यों हो रहा है? जन्म में भी शांति की तलाश करते-करते नई स्त्री के मोह में पड़ वक्त आ गया! जैसे वक्त पर चाय पीनी पड़ती है, या सिगरेट | गया था। और दूसरे जन्म में भी शांति की तलाश करने गया था पीनी पड़ती है, वैसे ही वक्त पर दुखी भी होना पड़ता है। वक्त आ | और एक भिक्षुणी के प्रेम में पड़ गया था। गया। भीतर से दशा लौट आई। तब वह बहुत घबड़ाया। उसने बुद्ध से कहा कि यह क्या है? मन चौबीस घंटे दोहराए चला जाता है यंत्रवत। इस मन के | | यह मैं कर रहा हूं या मुझसे जबरदस्ती करवाया जा रहा है? - दोहराने को अगर हम लंबा फैलाएं पूरे जीवन के विस्तार पर, तो | बुद्ध ने कहा, अगर तू जानता नहीं है, तो तू करता ही चला इसके कई वर्तुल हैं। रोज घूमता है, वर्ष प्रतिवर्ष घूमता है, फिर | | जाएगा। क्योंकि तुझे पता ही नहीं है कि तू सिर्फ दोहर रहा है, तू जीवन से दूसरे जीवन में घूमता चला जाता है। इसको पुनर्जन्म | | सिर्फ पुनरुक्ति कर रहा है। लेकिन स्मरण नहीं है, इसलिए हम कहता है भारत। बार-बार वही दोहरा लेते हैं; बार-बार वही दोहरा लेते हैं। भारत कहता है कि आदमी जैसा है, अगर वह अपने को | । छोड़ें, पिछले जन्म का स्मरण तो थोड़ा कठिन पड़ेगा, लेकिन रोज-रोज विकासमान न करे, तो वह फिर पूरा का पूरा जीवन वापस | | रोज का तो स्मरण है; बीता कल तो आपको पता है। कल भी दोहर जाएगा। जन्म के बाद हम मृत्यु तक जहां तक पहुंचे हैं, मृत्यु | आपने जिस बात पर क्रोध किया था, और पछताए भी थे कि अब हमें वापस पुरानी जगह पर खड़ा कर देगी; हम फिर से जन्म शुरू | | क्रोध नहीं करूंगा, आज भी उसी बात पर क्रोध किया है और आज कर देंगे; फिर वही का वही, फिर वही का वही। भी पछताए हैं कि क्रोध नहीं करूंगा! और आज भी आप सोच रहे 308
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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