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गीता दर्शन भाग - 4.
इतनी घबड़ाहट भक्त को? इतना कमजोर भक्त ? कि अगर वह राम का भक्त है—यह तो दूर की बात है कि नास्तिक की बात वह
सुने - अगर वह राम का भक्त है, तो कृष्ण की बात नहीं सुनेगा ! इतनी नपुंसक भक्ति ? इतनी कमजोर ? इतनी दीन ? भक्ति तो परम शक्ति है। जब उसका आविर्भाव होता है, तो उससे ज्यादा बलशाली कोई व्यक्ति ही नहीं होता। वह तो परम ऊर्जा का जागरण है । तो इस कमजोर भक्त और परम ऊर्जा के जागरण का क्या संबंध है? एक महिला चार दिन पहले रे पास आई। और वह कहने लगी कि मैं आपसे यह पूछने आई हूं कि मेरे गुरु तो मर गए हैं, लेकिन कह गए हैं कि किसी और की बात सुनने कभी मत जाना, अन्यथा मार्ग से च्युत हो जाएगी। तो गुरु तो मर चुके हैं, मैं आपसे पूछने आई हूं कि अगर आपकी बात सुनने आऊं, तो कोई हानि तो हो जाएगी ?
सत्य इतने कमजोर ? और गुरु इतने दीन ? कहीं कोई दूसरी बात सुनकर डांवाडोल तो न हो जाएगा मन?
तो जानना कि डांवाडोल है ही। अपने को कब तक धोखा दोगे ? ऐसे धोखे से नहीं चलेगा। जरा-सा हवा का झोंका और सब प्राण कंप जाएंगे; और सब मुर्दा पत्ते उड़ जाएंगे; और भीतर वे जो छिपे हुए संदेह हैं, ऊपर उघड़ आएंगे।
हम ऐसे भक्त हैं, जैसे अंगारे के ऊपर राख छा गई हो बस । थोड़ा अंगारा बुझ गया है, ऊपर-ऊपर राख हो गई है, भीतर अंगार जलती है। भीतर संदेह मौजूद हैं। इसलिए हम विपरीत बात से भयभीत होते हैं। भीतर संदेह मौजूद है, वही हमारा भय है। हम भलीभांति जानते हैं कि कोई भी राख को जरा-सी फूंक मार देगा, तो अंगारा भीतर से प्रकट हो जाएगा। ऐसी भक्ति का कोई भी मूल्य नहीं है, आत्मवंचना है।
कृष्ण ऐसी भक्ति की बात नहीं कर रहे हैं। कृष्ण तो उन मनीषियों में हैं, जो पलायन में भरोसा नहीं करते, भागने में भरोसा नहीं करते, लड़ने में भरोसा करते हैं - बाहर के युद्ध में ही नहीं, भीतर के युद्ध में भी ।
अर्जुन से उन्होंने पूरी टक्कर ली। अगर बुद्धि के खेल में अर्जुन रस आ रहा है, तो कृष्ण ने भी उस रस में पूरा भाग लिया। उन्होंने यह नहीं कहा कि यह क्या तू बुद्धि की बातें करता है, बेकार ! क्योंकि किसी के बेकार कहने से कुछ भी बेकार नहीं होता है । बल्कि अक्सर तो यह होता है, बेकार कहने से और भी ज्यादा रसपूर्ण हो जाता है। उन्होंने यह नहीं कहा कि बंद कर। श्रद्धा जन्मा !
श्रद्धा कोई जन्माई नहीं जाती। उन्होंने यह नहीं कहा कि भरोसा रख! क्योंकि किसी के कहने से अगर भरोसा आता होता, तो सारी दुनिया कभी की भरोसे से भर गई होती। कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि भरोसा कहने से पैदा नहीं होता, भरोसा तो बुद्धि की असमर्थता से जन्मता है।
ध्यान रखें, जब बुद्धि असहाय हो जाती है, तभी श्रद्धा का जन्म | होता है। जब बुद्धि थककर गिर जाती है, और पाती है कि अब एक | इंच भी गति का उपाय नहीं है... बुद्धि के मरघट पर ही श्रद्धा का बीज अंकुरित होता है।
इसलिए कमजोर बुद्धि की नहीं, बड़ी संघर्षशील बुद्धि की | जरूरत है, बड़ी जीवंत बुद्धि की जरूरत है । और भक्ति को ऐसा मत समझ लें कि वह उनका काम है, जिनके पास बुद्धि नाम मात्र नहीं है। भक्ति उनका काम है, जिनके पास बुद्धि की यात्रा के पार जाने का समय आ गया है; जो बुद्धि के भी ऊपर उठने के करीब पहुंच गए हैं; जो उस सीमा रेखा पर सीमांत पर खड़े हो गए, जहां बुद्धि समाप्त होती है, और भक्ति और हृदय की यात्रा शुरू होती है।
इसलिए कृष्ण ने कहा कि तुझ भक्त के लिए।
अब तक अर्जुन एक जिज्ञासु था। एक खोज थी उसकी। समझना चाहता था; लेकिन बुद्धि से। अब वह भक्त हुआ। अब वह समझना चाहता है; लेकिन अब खोज पिपासा बन गई है। अब खोज केवल एक इंटलेक्चुअल इंक्वायरी नहीं है, अब हृदय की अभीप्सा है। अब | तक जो था, वह शब्दों का जाल था। अब अपने को दांव पर लगाने
की भी हिम्मत उसमें आ गई है। इसलिए वे कहते हैं कि इस परम | गोपनीय ज्ञान को रहस्य के सहित कहूंगा। यह ज्ञान परम गोपनीय है; गुप्त रखने योग्य है; न कहा जाने योग्य है।
बड़ी उलटी बात कृष्ण कहते हैं, कि जो गोपनीय है, उसे कहूंगा ! | उसे कहूंगा, जिसे नहीं कहना चाहिए। उसे कहूंगा, जो नहीं कहा जा सकता है ! उसे कहूंगा, जो कि कहकर भी कभी नहीं कहा गया है! गोपनीय का यह अर्थ होता है, जो गुप्त है स्वभाव से । और उसको रहस्य सहित कहूंगा ! उस गोपनीय की जो भी रहस्यमयता है, उसके आस-पास जो रहस्य का आभामंडल है, उसे भी | उघाड़कर कहूंगा। जिसे नहीं उघाड़ना है, उसे निर्वस्त्र करूंगा ! जिसे छिपाए रखना ही उचित है, उसे भी अब नहीं छिपाऊंगा ! क्यों ? कुछ बातें खयाल में ले लें।
पहली बात, जब तक हृदय में भक्त का भाव न हो, तब तक
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