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________________ श्रद्धा का अंकुरण * हार न जाए, पराजित होकर गिर न जाए, अपने ही हाथों अपनी आत्महत्या न कर ले-दौड़ ले, कोशिश कर ले, संघर्ष कर ले, विजय की चेष्टा कर ले, और सब विफल हो जाए तब तक हृदय का आविर्भाव नहीं होता । इसलिए हृदय का अर्थ, अज्ञान मत समझ लेना। इसलिए हृदय का अर्थ एक तरह का भोला-भाला बुद्धूपन मत समझ लेना । इसलिए हृदय का अर्थ बुद्धि की कमजोरी मत समझ लेना। इसलिए यह मत समझ लेना कि जिनकी बुद्धि कमजोर है, वे बड़े धन्यभागी हैं। यह भी मत समझ लेना कि जो सोच-विचार नहीं सकते, उनका तो भक्ति का द्वार खुला ही हुआ है ! नहीं। भक्त तभी कोई हो पाता है, जब बुद्धि की सारी चेष्टाएं असफल हो जाएं। इसलिए भक्ति बुद्धि के पार ले जाती है, नीचे नहीं। और जो बुद्धि तक भी नहीं पहुंच पाते, ध्यान रखें, वे भक्ति तक नहीं पहुंच पाएंगे। यह मेरी बात कठोर मालूम पड़ेगी, क्योंकि भक्त ऐसा सोचते हैं कि ठीक है, बुद्धि का तो बहुत कठिन काम है । हमारे में तो बुद्धि है नहीं, तो हम तो मंदिर में घंटी बजाकर, फूल चढ़ाकर काम चला लेंगे! इस धोखे में कोई भी न पड़े। जीवन के सत्य की प्रतीति श्रम मांगती है । और कोई भी क्षमा नहीं किया जा सकता। और जीवन के मंदिर के प्रवेश में सभी को संघर्ष के रास्ते से गुजरना ही पड़ता है । वह अनिवार्यता है । और पीछे का कोई भी दरवाजा नहीं है कि आप कोई रिश्वत देकर, कि भगवान की स्तुति करके पीछे के किसी द्वार से प्रवेश कर जाएं। इसलिए कोई यह न सोचे कि भक्ति का मार्ग बड़ा सुगम है। . कृष्ण खुद कहेंगे कि सुगम है। लेकिन ध्यान रखें कि यह आठ अध्यायों के बाद वे अर्जुन से कह रहे हैं। आठ अध्याय को मत भूल जाएं। अगर ऐसा ही सुगम था, तो कृष्ण बिलकुल पागल हैं! यह आधी गीता व्यर्थ! जब ऐसी सुगम ही बात थी, तो इसे शुरू: ही कह देना चाहिए था । इतनी देर तक अर्जुन का समय गंवाने की क्या है जरूरत ? कठिन मार्ग पहले बताए, अब सुगम बताते हैं ! सीधा गणित तो यही है कि सुगम पहले बता दिया जाए। अगर सुगम न हो सके, तो फिर कठिन बताया जाए। नहीं, कारण कुछ और है। भक्ति सुगम है, अगर गीता के आठ अध्याय आप पार कर गए हों; निश्चित सुगम है। लेकिन अगर वे आठ आप सिर्फ उलट ही गए हों, छोड़ ही गए हों, तो भक्ति अति कठिन है। भक्ति की सुगमता बेशर्त नहीं है। उसमें एक शर्त है। और शर्त में ही सारा दांव है। इसलिए लोग कहते सुने जाते हैं कि हमारा मार्ग तो भक्ति है। उनका मतलब यह होता है कि बुद्धि की झंझट में हम नहीं पड़ते। उनका मतलब यह होता है कि कौन उस उपद्रव में पड़े। और अगर कोई बुद्धि की झंझट में पड़ा है, तो वे उसकी तरफ ऐसे देखते हैं, कि बेचारा ! 171 अज्ञानी अपने अज्ञान में भी मजा लेते हैं। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, पढ़ने-लिखने से क्या होगा? उनका मतलब यह होता है कि पढ़ा-लिखा जो आदमी है, बेकार गया। ऐसे वे अपने मन में संतोष कमाते हैं। मैं भी जानता हूं, पढ़ने-लिखने से क्या होगा! लेकिन पढ़ने-लिखने से क्या होगा, यह बहुत पढ़े-लिखे आदमी की बात है। किताबें बेकार हैं, यह उसकी बात नहीं है, जिसे काला अक्षर भैंस बराबर है। यह उसकी बात है, जिसने किताबों में से गुजरकर देखा है और पाया है कि वे बेकार हैं। लेकिन किताबें बेकार हैं, यह किताबों से गुजरे बिना कभी किसी को अनुभव नहीं होता है। और बुद्धि बेकार है, यह बुद्धि के मार्ग से गुजरे बिना कभी भी पता नहीं चलता है। इतनी उपादेयता है। बुद्धि से गुजरकर फिर आदमी बुद्धि का भरोसा खो देता है। लेकिन ध्यान रहे, इस भरोसे के खोने के लिए बुद्धि की बड़ी | जरूरत है। इसलिए कृष्ण ने पूरी मेहनत की अर्जुन की बुद्धि के साथ। ऐसा नहीं कहा कि क्या जरूरत है? तू भक्ति भाव को | ग्रहण कर ले; तू भक्त हो जा, समर्पित हो जा। मान ले मेरी, जो मैं कहता हूं। कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि दुनिया में कोई भी आदमी तब तक मान नहीं सकता, जब तक उसकी जानने की क्षमता पूरी तरह पराजित न हो जाए। जब तक प्रश्न गिर ही न जाएं, तब तक निष्प्रश्न चित्त पैदा नहीं होता। और जब तक संदेह अपनी पूरी चेष्टा और पूरा यत्न न कर लें, तब तक मरते नहीं हैं; दबाए जा सकते हैं। हमारे पास जो तथाकथित भक्तों का समाज है, वह दबाया हुआ समाज है। वे दबाए हुए संदेह उसके भीतर भी हैं। उसने कभी संदेहों को पार नहीं किया है। वह उनको दबाकर बैठ गया है उनके ऊपर । इसलिए उसकी भक्ति कमजोर और नपुंसक भी है। क्षणभर में डांवाडोल हो जाती है। इसलिए भक्त होकर भी वह डरता है । नास्तिक की बात सुनने में घबड़ाता है। कोई अगर ईश्वर के विपरीत बोलता हो, तो कान में हाथ डाल लेता है।
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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