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स्वभाव अध्यात्म है *
है, अपना सिर कहां है। फिर एक क्षण के लिए सोचें कि मेरा सिर है, वह छ: इंच लंबा हो गया। आप कहेंगे, कैसे सोचेंगे ! यह बिलकुल सरल है, और एक दो दिन में आपको अनुभव में आ जाएगा कि माथा छः इंच लंबा हो गया। आंख बंद किए ! फिर वापिस लौट आएं, नार्मल हो जाएं, अपनी खोपड़ी के अंदर वापिस आ जाएं। फिर छः इंच पीछे लौटें, फिर वापस लौटें। पांच-सात बार करें।
जब आपको यह पक्का हो जाए कि यह होने लगा, तब सोचें कि पूरा शरीर मेरा जो है, वह कमरे के बराबर बड़ा हो गया। सिर्फ सोचना, जस्ट ए थाट, एंड दि थिंग हैपेंस । क्योंकि जैसे ही यह तीसरे नेत्र के पास शक्ति आती है, आप जो भी सोचें, वही हो जाता है । इसलिए इस तरफ शक्ति लाकर कभी भी कुछ भूलकर गलत नहीं सोच लेना, वह भी हो जाता है।
इसलिए इस तीसरे नेत्र के संबंध में बहुत बातें लोगों को नहीं कही जाती हैं, क्योंकि इससे बहुत संबंधित द्वार हैं। यह करीब-करीब वैसी ही जगह है, जैसा पश्चिम का विज्ञान एटामिक एनर्जी के पास जाकर झंझट में पड़ गया है, वैसा ही पूरब का योग इस बिंदु के पास आकर झंझट में पड़ गया था। और पूरब के मनीषियों ने खोजा हजारों वर्षों तक, और फिर छिपाया इसको । क्योंकि आम आदमी के हाथ में पड़ा, तो खतरे शुरू हो गए थे।
अभी पश्चिम में वही हालत है। आइंस्टीन रोते-रोते मरा है कि किसी तरह एटामिक एनर्जी के सीक्रेट खो जाएं, तो अच्छा है; नहीं तो आदमी मर जाएगा।
पूरब भी एक दफा इस जगह आ गया था दूसरे बिंदु से, और • उसने सीक्रेट खोज लिया था, और उससे बहुत उपद्रव संभव हो
थे, और शुरू हो गए थे। तो फिर उसको भुला देना पड़ा। पर यह छोटा-सा सूत्र मैं कहता हूं, इससे कोई बहुत ज्यादा खतरे नहीं हो सकते हैं, क्योंकि और गहरे सूत्र हैं, जो खतरे ला सकते हैं।
सोचें एक क्षण को कि जब आपका सिर बाहर निकलने, भीतर आने में समर्थ हो जाए – और एक दो-चार दफे में हो जाता है - तो सोचें कि मेरा शरीर पूरे कमरे में फैल गया है, इतना बड़ा हो गया है। आप फौरन पाएंगे कि एक बैलून की तरह, एक गुब्बारे की तरह आप दीवालों को छू रहे हैं। तब आप पूछें कि मेरी आकृति क्या है? क्योंकि यह तो मेरी आकृति नहीं है।
शरीर की जो हमारी प्रतीति है, वह केवल आटोहिप्नोटिक है। बचपन से हम सोच रहे हैं, यह मेरी सीमा है, यह मेरा शरीर है;
यह मेरी सीमा है, यह मेरा शरीर है। बस । यह सिर्फ सम्मोहित है। इसे छोड़ देना पड़े। यह कंडीशंड है, यह सीखी हुई बात है, इसका प्रशिक्षण हुआ है। यह है नहीं। इस प्रशिक्षण को तोड़ दें, जैसे भाषा को तोड़ा। यह भी एक भाषा है आकार की, इसको तोड़ दें, और निराकार में आप खड़े हो जाएंगे। और तब आप जानेंगे, कृष्ण का क्या अर्थ है, स्वभाव अध्यात्म है।
स्वभाव का अर्थ है, जो मैं हूं, बिना बनाया। बिना किसी की सहायता के बिना आयोजन के, बिना चेष्टा के, बिना प्रयत्न के जो मैं हूं ही; वह जो मेरा सारभूत हिस्सा है— असृष्ट, अनिर्मित, अनायोजित — वही मैं हूं, उसको जान लेना ही अध्यात्म है। जो उसे | जान ले, वही ब्रह्म को भी जान लेता है। इसलिए अध्यात्म ब्रह्म को जानने का विज्ञान है।
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अपना स्वरूप अध्यात्म। भूतों के भावों को उत्पन्न करने वाला विसर्ग, त्याग, वह कर्म के नाम से कहा गया है। अर्जुन ने पूछा है, कर्म क्या है ? कृष्ण कहते हैं, भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला विसर्ग, कर्म के नाम से कहा गया है। इस संबंध में दो-तीन बातें खयाल में ले लेने जैसी हैं।
एक, जो लोग भी गीता पर टीकाएं किए हैं, उन सबने कर्म से अर्थ लिया है वैदिक कर्मकांड का । उन सबने अर्थ लिया है, शास्त्र - विहित यज्ञ, दान, होम आदि के निमित्त जो द्रव्य आदि का | त्याग है, वह कर्म कहा गया है। लेकिन यह थोपा हुआ अर्थ है।
कृष्ण जैसे व्यक्ति सामयिक भाषाओं में नहीं बोलते हैं, शाश्वत भाषाओं में बोलते हैं। कृष्ण का क्या अर्थ होगा ? भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला, जो त्याग है, वह कर्म कहा गया है।
यह बहुत कठिन सूत्र है। अगर इसकी पहली व्याख्या - जैसा कि आमतौर से की जाती है— की जाए, तो एकदम साधारण सूत्र है। लेकिन मैं जो इसमें देखता हूं, वह बहुत असाधारण है। तो उसे थोड़ा पकड़ने में दिक्कत पड़ेगी।
आदमी का जो स्वभाव है, वह उसका बीइंग है । और आदमी का जो स्वभाव नहीं है; वह उसका कर्म है, वह उसका डूइंग है।
और हमारे दो हिस्से हैं, एक हमारा स्वभाव, जो मैं हूं; और एक मेरे कर्म का जगत, जो मैं करता हूं। निश्चित ही, कृष्ण का दूसरा अर्थ है। क्योंकि जस्ट आफ्टर बीइंग की परिभाषा, कि स्वभाव अध्यात्म है, वह कर्म की परिभाषा करनी ही उनको चाहिए, कि फिर कर्म क्या है ! क्योंकि हम सारे लोग डूइंग को ही समझते हैं, मैं हूं।