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________________ गीता दर्शन भाग-4 एक आदमी से पूछें, आप कौन हैं? वह कहता है कि मैं चित्रकार हूं। असल में चित्रकार होना, उसके होने की खबर नहीं है; इस बात की खबर है कि वह क्या करता है। चित्र बनाता है। एक आदमी कहता है कि मैं दुकानदार हूं। दुकानदार कोई हो सकता है दुनिया में? दुकानदार कर्म है, होना नहीं है। वह आदमी यह कह रहा है कि मैं दुकानदारी करता हूं। उसको कहना यह चाहिए | कि मैं दुकानदारी करता हूं। पर वह कहता है, मैं दुकानदार हूं। हम कर्म के जोड़ को ही अपनी आत्मा बनाए हुए बैठे हैं। इसलिए हर आदमी अपने कर्म से ही अपना परिचय देता है— हर आदमी किसी से भी पूछो, कौन हो ? वह फौरन बताता है कि मेरा कर्म क्या है। पूछा ही नहीं आपसे कि आपका कर्म क्या है। लेकिन अगर नहीं पूछा कि कर्म क्या है, तो बड़ी मुश्किल है। उसका तो हमें पता ही नहीं कि मैं कौन हूं। कर्म का ही लेखा-जोखा है। तो हर आदमी अपना खाता-बही लिए अपने साथ चलता है। वह कहता है, यह मैं हूं। कोई आदमी अपनी तिजोड़ी ढोता है, वह कहता है, यह मैं हूं। कोई आदमी अपनी पोथियां लेकर चलता है कि यह मैं हूं। कोई आदमी अपना त्याग लिए चलता है कि यह मैं हूं। देखो, मैंने बारह साल तपश्चर्या की ; यह मैं हूं। कर्म को ही हम कहते हैं कि यह मैं हूं। अगर कर्म छीन लिया जाए, भी आप होंगे या नहीं होंगे? अगर त्यागी से त्याग छीन लिया जाए, धनी से धन छीन लिया जाए, चित्रकार से उसकी चित्रकला छीन ली जाए, उसके हाथ काट दिए जाएं कि वह चित्र भी न बना सके, तो भी चित्रकार, जो कह रहा था कि मैं चित्रकार हूं, वह होगा कि नहीं? वह होगा ही। हाथ काट डालो, तूलिका छीन लो; धन छीन लो, त्याग छीन लो, ज्ञान छीन लो; कोई फर्क नहीं पड़ता । मेरा होना तो होगा । मेरा होना मेरा करना नहीं है । मेरा होना नितांत अकर्म की अवस्था है, नान एक्शन की; जब मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं, सिर्फ हूं। स्वाभाविक है कि कृष्ण तत्काल कर्म की बात कहें। और अर्जुन भी पूछा है, कर्म क्या है? उसने भी नहीं पूछा, वैदिक कर्मकांड क्या है ? पूछा कि कर्म क्या है ? कृष्ण भी नहीं कहते कि वैदिक कर्म है । वे कहते हैं, कर्म, भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है। बड़ा ही महत्वपूर्ण सूत्र है। इस जगत में हमारे मन में, जब भी हम कुछ पाने की इच्छा से चलते हैं, जब भी हम भोगना चाहते हैं, तब हमें कुछ त्यागना पड़ता है । और ध्यान रहे, जब भी हम जगत में कुछ भोगना चाहते हैं, तो हमें स्वयं को त्यागना पड़ता है, दि वेरी मोमेंट। अगर मैं चाहता हूं कि मैं धनी हो जाऊं, तो हर धन की तिजोड़ी भरने के साथ-साथ मुझे अपनी आत्मा को क्षीण करते जाना पड़ेगा। अगर मैं चाहता हूं कि बड़े यश के सिंहासनों पर प्रतिष्ठित हो जाऊं, तो जैसे-जैसे मैं यश के सिंहासन की सीढ़ियां चढूंगा, वैसे-वैसे मेरा अस्तित्व, मेरा बीइंग, मेरी आत्मा नर्क की सीढ़ियां उतरने लगेगी। 14 इस जगत में कुछ भी भोग, त्याग है अपना । और व्यर्थ के लिए हम सार्थक को छोड़ते चले जाते हैं! भोगादि की इच्छा से, वासना से, कुछ पाने की आकांक्षा से, जो भी त्याग किया जाता है, जो विसर्ग है...। यह विसर्ग शब्द बहुत अदभुत है। अपने से बिछुड़ जाने का नाम | विसर्ग है । डिसज्वाइंट फ्राम वनसेल्फ- स्वयं से टूट जाना विसर्ग है। स्वयं से चूक जाना, हट जाना विसर्ग है। स्वयं से चूक जाना ही त्याग है। यह बड़े मजे की बात है, जिन्हें हम त्यागी कहते हैं, शायद वे त्यागी नहीं। हम सब, जिन्हें हम भोगी समझते हैं, बड़े त्यागी हैं, महात्यागी हैं। क्योंकि हम क्षुद्र के लिए विराट को छोड़कर बैठे हैं! हम जैसा त्यागी खोजना बहुत कठिन है। एक कौड़ी हमें मिलती हो,' तो हम आत्मा को बेचने को तैयार हैं, कि सम्हालो यह आत्मा, कौड़ी दो। हम न हुए तो चल जाएगा, कौड़ी न हुई तो कैसे चलेगा ! मुल्ला नसरुद्दीन को कुछ डाकुओं ने घेर लिया है एक अंधेरे रास्ते पर। और वे कहते हैं कि क्या इरादा है ? धन देते हो अपना | कि जान? नसरुद्दीन ने कहा, जान ले लो। धन तो मैंने बुढ़ापे के लिए बचाकर रखा है ! और फिर जान की कीमत ही क्या है? मुफ्त मिली थी, मुफ्त एक दिन जाएगी। धन बड़ी मुश्किल से कमाया है ! हंसते हम जरूर हैं, लेकिन करते हम भी यही हैं। नसरुद्दीन इकट्ठा कर रहा है; हम जरा फुटकर - फुटकर करते हैं। वही आदमी | अच्छा है; इकट्ठा कर रहा है। वही लाजिकल कनक्लूजन है हमारी | जिंदगी का, वह जो नसरुद्दीन कह रहा है कि ठीक, ले लो जान । क्योंकि जान के लिए किया क्या हमने कभी कुछ मुफ्त मिली, मुफ्त चली जाएगी। धन ? धन के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी है। और फिर, मोरओवर आई एम सेविंग इंट फार दि ओल्ड एज - बुढ़ापे के लिए बचा रहा हूं। जान का क्या करेंगे बुढ़ापे में अगर धन ही न हुआ ? एक बार बिना जान के चल जाए, बिना धन
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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