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________________ * स्वभाव अध्यात्म है के नहीं चल सकता है। जल्दी राष्ट्रपति का सिंहासन हो जाता है। मन ही मन में न मालूम मगर यह आदमी जो है, यह हमारी ही निष्पत्ति है, हमारी ही | | कहां-कहां चढ़ते-बैठते रहते हैं! न मालूम क्या-क्या करते रहते हैं। बुद्धि। यही हम सब कर रहे हैं। हम जरा हिम्मतवर कम हैं, तो मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी की हत्या कर दी थी, तो उस पर धीरे-धीरे बेचते हैं, काट-काटकर बेचते हैं। यह आदमी हिम्मतवर | | मुकदमा चला। और मजिस्ट्रेट ने पूछा, नसरुद्दीन, क्या तुम कुछ है। और मूढ़ हिम्मतवर ज्यादा होते हैं। हम सब बहुत अपने को | | भी अपने पक्ष, अपने बचाव में कह सकते हो? तो नसरुद्दीन ने बुद्धिमान समझे हैं, धीरे-धीरे काट-काटकर बेचते रहते हैं। । कहा, पहली बात तो यह कि अगर अपना बचाव ही कर सकते, तो ___ इसे कृष्ण कहते हैं कि स्वयं से छुट जाना, स्वयं का त्याग, कर्म | | हत्या क्यों करते? अगर अपना बचाव ही कर सकते, तो हत्या क्यों है। यह बड़ी अदभुत बात है। यह सूत्र बहुत कीमती है। अपने से | | करते? और फिर दूसरी बात यह कि इस स्त्री के साथ हम तीस छूट जाना, अपने को छोड़ जाना, अपने होने को, स्वभाव को, | साल रहे, क्या यह भी काफी नहीं है कि हमने इसके पहले इसकी स्वरूप को छोड़कर भागना ऐसी किसी चीज के प्रति, जो न कभी | | हत्या कभी नहीं की! और नसरुद्दीन ने कहा, अब सच्ची आखिरी मिल सकती है, और मिल भी जाए तो उसके मिलने से कुछ नहीं | | बात आपको बता दूं कि तीस साल तक हत्या के संबंध में सोचते मिलता है। लेकिन हर आदमी अपने को छोड़कर भागता है। । रहने की बजाय मैंने सोचा, कर ही देना उचित है। तीस साल! कर्म की अगर यह व्याख्या खयाल में आ जाए, तो जहां-जहां | नसरुद्दीन ने कहा, सोचिए, तीस साल! और मेरा वकील मुझ से हम कर्म में रत हैं, वहां-वहां हम अपने को छोड़कर भागे हैं। क्या | कहता है कि अब तुझे तीस साल की सजा होगी कम से कम। इस इसका यह अर्थ है कि हम कर्म छोड़कर भाग जाए? | कमबख्त ने अगर पहले ही बता दिया होता, तो हम पहले दिन नहीं, कृष्ण तो कहते हैं, कर्म छोड़कर कोई भागेगा भी तो कहां | इसकी हत्या कर देते, तो आज छूट गए होते! तीस साल! आज हमें भागेगा! क्योंकि भागना भी कर्म है, और छोड़ना भी कर्म है। एक | दुख इस बात का नहीं है, नसरुद्दीन ने कहा कि क्यों हत्या की! आज ही उपाय है कि कर्म चलता रहे, तो भी प्रतिष्ठा कर्म में न हो; | दुख इस बात का है कि तीस साल काहे पिछड़े! किसलिए? आज प्रतिष्ठा बीइंग में, अस्तित्व में, आत्मा में हो। प्रतिष्ठा! मैं कितना | | छूट गए होते। आज मुक्त, बाहर होते। इस कमबख्त से पहले भी ही तेजी से दौडूं, मेरे भीतर तो कोई बिंदु ऐसा ही होना चाहिए जो | पूछा था, तब इसने कहा था, फांसी लग जाएगी नसरुद्दीन! और बिलकुल अदौड़ा है, दौड़ा ही नहीं है। मैं कितना ही भोजन करूं, अब कहता है, तीस साल की सजा होगी! मेरे भीतर तो कोई होना चाहिए, जिसने भोजन कभी किया ही नहीं। कर रहे हैं हम सब। कितनी हत्याएं आपने की हैं, हिसाब है? वह है। सिर्फ उसका स्मरण नहीं है। मैं बाएं जाऊं कि दाएं, मैं | | कितने साल से, कितने लोगों की हत्या कर रहे हैं? बिना किए, किए ऊपर जाऊं कि नीचे, मेरे भीतर तो कोई होना चाहिए जो सदा थिर चले जाते हैं। क्योंकि करें, तब तो एक ही करने में मुश्किल पड़ेगी। है और कहीं आया नहीं, गया नहीं। इस प्रतिष्ठा का नाम अध्यात्म; | इसमें बड़ी सुविधा रहती है; ज्यादा करने की सुविधा रहती है। और इस प्रतिष्ठा से चूकने का नाम कर्म है। हम बिना किए करते रहते हैं। कुछ लोग हैं, जो करते भी हैं और यहां कर्म की एक आखिरी बात और। इसका अर्थ यह हुआ कि नहीं करते हैं। पर तब उनका कर्म विकर्म, अकर्म हो जाता है, विशेष कर्म भी तभी स्वयं का त्याग बनता है, जब उसमें कर्ता-भाव हो; | कर्म हो जाता है या कर्म-शून्य हो जाता है; वे कर्ता नहीं रह जाते। मैंने किया, ऐसा भाव हो। ज्ञानी भी करता है, लेकिन कर्ता का भाव आज इतना ही। कल हम दूसरे सूत्र पर आगे बढ़ेंगे। नहीं होता, इसलिए उसके कर्म को कृष्ण कहते हैं, अकर्म जैसा कर्म सुबह के लिए एक-दो सूचनाएं दे देनी हैं। सुबह केवल वे ही है उसका। अकर्म ही है! वह करते हुए भी नहीं करता है। | लोग आएंगे, जो सुनने के लिए नहीं, कुछ करने के लिए उत्सुक और हम ऐसे लोग हैं कि हम न भी करते हों, तो भी करते रहते | | हों। वे ही लोग आएंगे सुबह, जो ध्यान में उतरना चाहते हों। हैं! हममें सब ऐसे लोग हैं। हममें से सबको राष्ट्रपति के पद पर | | अन्यथा न आएं। कोई दर्शक न आए। बैठने का उपद्रव नहीं झेलना पड़ेगा। ऐसे अभागे हममें बहुत कम हैं, | __ और जो लोग आ जाएं, वे फिर पूरे साहस से उस प्रयोग में उतरें। जिनको ऐसी दुर्घटना घटे कि राष्ट्रपति हो जाएं। लेकिन हम सब | क्योंकि सांझ हम जो बात करेंगे, वह बात ही रह जाएगी, अगर बैठते रहते हैं; वह हम नहीं छोड़ते मौका। कुर्सी पर बैठे हैं, बहुत | | सुबह हमने उसका प्रयोग न किया। और आदमी इतना बेईमान है
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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