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* क्षणभंगुरता का बोध
जो लोग हिरोशिमा के पहले मर गए अणु बम बनाकर, उनको पता भी नहीं है। वे इसी खुशी में मरे हैं कि वे मनुष्य जाति को एक महान शक्ति देकर विदा हो गए हैं। अभागे तो वे वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अपने हाथ से अपने सामने आदमीयत को जलते हुए देखा - अपनी ही खोज का यह परिणाम !
कृष्ण ने जब यह सूत्र कहा था, तब मनुष्य के प्रकार का यह महान प्रयोग गतिमान था, स्वस्थ था, विकसित हो रहा था, अंकुरित हो रहा था, सड़ नहीं गया था।
कृष्ण कहते हैं, शूद्र हो, कि वैश्य हो, कि स्त्री हो, कोई भी हो, वे भी मेरी शरण को पाकर परम गति को उपलब्ध हो जाते हैं।
यहां कोई निंदा का स्वर नहीं है; यहां केवल तथ्य की सूचना है। सिर्फ इस तथ्य की कि जो शरीर के पास जी रहे हैं, वे भी; जो मन के पास जी रहे हैं, वे भी; वे भी शरण आकर मुझे पा लेते हैं।
शरण आने का मूल्य समझाया जा रहा है। आप क्या हैं, यह मूल्यवान नहीं है; आप कौन हैं, यह मूल्यवान नहीं है; अच्छे हैं, बुरे हैं, यह मूल्यवान नहीं है। शरण जाने की क्षमता आपकी है, तो आप परमात्मा को उपलब्ध हो जाएंगे। ऐसी शर्त कृष्ण कहते हैं, शरण, सरेंडर की, उसके सामने समर्पण कर देने की, अपने अहंकार को उसके सामने छोड़ देने की।
पुण्यशील ब्राह्मणजन और राजऋषि भक्तजनों का तो परमगति प्राप्त होना सुनिश्चित है। अगर वे भी अपने को शरण में लगा पाएं। इसलिए तू सुखरहित ओर क्षणभंगुर इस लोक को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही भजन कर।
केवल मुझ परमात्मा में अनन्य प्रेम से अचल मन वाला हो, और मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजने वाला हो। और मेरा श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से विह्वलतापूर्वक पूजन करने वाला हो, मुझ परमात्मा को प्रणाम कर। इस प्रकार मेरे शरण हुआ तू आत्मा को मेरे में एकीभाव करके मुझ को ही प्राप्त हो सकेगा।
यहां तीन-चार बातें खयाल में लेने जैसी हैं।
पहली बात, कृष्ण कहते हैं, सुखरहित और क्षणभंगुर लोक में ! जहां हम जी रहे हैं, वहां सुख का आभास बहुत होता है, सुख मिलता नहीं। मिलता है दुख, आभास होता है सुख का । हाथ में आता है दुख, आशा बनती है सुख । दूर से दिखाई पड़ता है सुख, पास पहुंचकर उघड़ जाता है और पता चलता है, दुख ही है। दूर से सुख दिखाई पड़ता था । दूरी की भूल है। दूर से जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा पास पाया नहीं जाता।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, सुखरहित संसार में !
ध्यान रहे, कृष्ण यह भी कह सकते थे, इस दुख से भरे संसार | में। यह नहीं कहा। ज्यादा उचित होता, ज्यादा जोर वाला होता, | कहते कि इस दुख भरे संसार में। लेकिन कृष्ण ने यह नहीं कहा कि इस दुख भरे संसार में। बुद्ध ने कहा है, यह संसार दुख है । कृष्ण कुछ दूसरा शब्द उपयोग किया है, और ज्यादा विचारपूर्वक है। कृष्ण ने कहा है, इस सुखरहित संसार में !
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क्यों? क्योंकि दुख तो पैदा ही इसलिए होता है कि हम इस जगत में सुख मान लेते हैं। इसलिए यह कहना कि जगत दुख है, ठीक नहीं है। हम सुख मानते हैं, इसलिए दुख पाते हैं। जगत दुख है, यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि अगर हम सुख न मांगें, तो जगत | बिलकुल दुख नहीं देता। हम सुख मानते हैं, इसलिए दुख मिलता है। जगत दुख नहीं देता।
मैं आपसे आशा करता हूं कि मेरा सम्मान करेंगे, मेरा आदर करेंगे। फिर आप मेरा आदर न करें, सम्मान न करें, तो मुझे दुख हो। दुख आपने मुझे दिया नहीं। आपका कोई हाथ ही नहीं है। आप बिना नमस्कार किए निकल गए। आपको पता भी नहीं होगा कि आपने मुझे दुख दिया। लेकिन मुझे दुख मिला, बिना आपके दिए ! -
यह दुख कहां से पैदा हुआ? यह दुख मेरी अपेक्षा से जन्मा । मैंने चाहा था नमस्कार हो, प्रणाम करें मुझे, आदर दें मुझे नहीं दिया, मेरी अपेक्षा टूटी। टूटी हुई अपेक्षा दुख बन जाती है। बिखरा हुआ सुख, दुख बन जाता है। न मिला सुख, दुख बन जाता है।
तो जगत दुख है, यह कहना ठीक नहीं है। बुद्ध से कृष्ण का | वचन ज्यादा गहन है। बुद्ध सीधा कहते हैं, जगत दुख है। ठीक नहीं है । कृष्ण कहते हैं, जगत सुखरहित है । वे यह कहते हैं कि जगत में कोई सुख नहीं है। और अगर कोई मनुष्य ऐसा जान ले कि जगत सुखरहित है, तो फिर उसे इस जगत में दुख नहीं हो सकता। उसे इस जगत में कोई दुख नहीं दे सकता।
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मुझे आप दुख देने में उसी सीमा तक समर्थ हैं, जिस सीमा तक मैं आपसे सुख मांगने में आतुर हूं। सुख मांगने की मात्रा ही आपकी क्षमता है मुझे दुख देने की। अगर मैं कुछ भी मांग नहीं रहा हूं, तो आप मुझे दुख नहीं दे सकते।
तो दुख स्वअर्जित है; जगत सुखरहित है और दुख स्वअर्जित है । इसलिए शब्द पर खयाल करें! कृष्ण कहते हैं, सुखरहित है | जगत। दूसरी बात कहते हैं, क्षणभंगुर । एक-एक क्षण में नष्ट हो जाने वाला है।
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