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________________ गीता दर्शन भाग-42 हमें खयाल नहीं आता। हमें ऐसा लगता है कि जगत बहुत थिर | है, वह भी बूढ़ा, वह भी बूढ़ा होता जा रहा है! एक आदमी मरना है। हम सबको यही खयाल होता है कि हम एक थिर जगत में जी ही नहीं चाहता है। वह जो कोशिश कर रहा है, उसमें ही मर रहे हैं। लेकिन जगत प्रतिपल बदलता चला जाता है—प्रतिपल! जाएगा। जीवन के प्रवाह के विपरीत हम थिर को खोजना चाहते हैं। लेकिन बदलाहट इतनी तीव्र है कि दिखाई नहीं पड़ती। हम चाहते हैं, कुछ ठहर जाए। नदी के किनारे खड़े हैं; नदी बही जा रही है, हम सोचते हैं वही ___ मैं किसी को प्रेम करता हूं, तो सोचता हूं, यह प्रेम बह न जाए, नदी है। फिर भी नदी में तो दिखाई पड़ता है। पहाड़ के किनारे खड़े बचे, सदा बचे। सिर्फ कवियों की कविताओं में बचता है। और हैं, तब तो बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता कि पहाड़ बहा जा रहा है। अक्सर उन कवियों की, जिनको प्रेम का कोई अनुभव नहीं है। सच पहाड़ भी बह रहे हैं। उनके बहने का समय जरा लंबा है। नदी के | तो यह है कि जिनको प्रेम का अनुभव है, वे कविता लिखने की बहने का समय जरा तीव्र है; इसलिए नदी दिखाई पड़ रही है। पहाड़ झंझट में नहीं पड़ते। जिनको कोई अनुभव नहीं है, वे कविता से भी बह रहे हैं। क्योंकि कल जो पहाड़ थे, आज नहीं हैं; और आज | तृप्ति खोजते रहते हैं। जो पहाड़ हैं, कल नहीं थे। कल जो पहाड़ होंगे, उनका हमें अभी सिर्फ कविताओं में प्रेम अमर है। जीवन में कहीं भी अमर नहीं कोई पता नहीं है। है। हो नहीं सकता। ऐसा नहीं कि प्रेमी का कोई कसूर है। नहीं, पहाड़ बह रहे हैं। वे भी बदल रहे हैं। उनका काल-माप बड़ा जीवन का नियम नहीं है। क्षणभंगुर है। है। करोड़ों वर्ष में बदलते हैं। नदी घड़ी में बदल जाती है। बस इसीलिए प्रेमी बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं। जब प्रेम के बहाव में काल-माप, टाइम पीरियड का फर्क है, बाकी पहाड़ भी बह रहे हैं। होते हैं और प्रेम अपनी ऊंचाई पर होता है, तो उनको लगता है कि और अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक चीज बह रही है। शाश्वत है, इटरनल है। अब तो इसका कोई अंत नहीं होगा। उन्हें प्रत्येक चीज लयमान है, गतिमान है। प्रत्येक चीज दौड़ रही है। पता नहीं है कि शाश्वत तो बहुत दूर की बात है, कल का, सुबह प्रत्येक चीज एक बहाव है। और यहां हर क्षण सब बदला जा रहा का भी कोई भरोसा नहीं है। है। यहां कुछ भी एक क्षण से ज्यादा नहीं टिकता। बाहर भी कुछ। ___ और फिर कल सुबह जब गंगा बह जाती है, और हाथ से पानी नहीं टिकता, भीतर भी कुछ नहीं टिकता। की धाराएं गिर जाती हैं बाहर, और हाथ में कुछ नहीं रह जाता, तब आपने कभी खयाल किया है कि आपका मन एक क्षण भी वही बड़ी कठिनाई शुरू होती है। फिर अपने ही किए हुए वचन-कि नहीं रहता, जो एक क्षण पहले था। एक क्षण पहले सुख मालूम हो | | चाहे मर जाऊं, लेकिन प्रेम करूंगा; चाहे कुछ भी हो जाए, प्रेम रहा था, और जरा भीतर झांककर देखें, सुख तिरोहित हो गया है! | करूंगा। लेकिन प्रेम बह गया। क्योंकि प्रेम आपके वचनों को नहीं एक क्षण पहले दुख मालूम हो रहा था, दुख खो गया है! एक क्षण मानता। प्रेम जगत के नियमों को मानता है। उसके अपने नियम हैं। पहले चिंता मालूम हो रही थी, चिंता चली गई! एक क्षण पहले बड़े मैं कितना ही कहूं, मेरे कहने का कोई सवाल नहीं है। जीवन के शांत थे, अशांत हो गए हैं! एक क्षण भी मन दोहरता नहीं, वही नियम अपवाद नहीं करते। नहीं होता। दो क्षण भी मन एक जैसा नहीं रहता। प्रेम बह जाएगा, तब फिर मुझे प्रेम का धोखा सम्हालना पड़ेगा। " भीतर मन बदल रहा है, बाहर संसार बदल रहा है। कोई चीज | | फिर मैं एक डिसेप्शन को पालकर रखूगा। फिर मैं कहता रहूंगा कि ठहरी हुई नहीं है। और जहां कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं है, वहां | प्रेम करता हूं और भीतर प्रेम नहीं पाऊंगा। और जारी रखूगा। अपने हमारी ठहराने की आकांक्षा से दुख पैदा होता है। हम ठहराना चाहते को भी धोखा दूंगा, दूसरे को भी धोखा दूंगा। और तब प्रेम से पीड़ा हैं, हम हर चीज को ठहराना चाहते हैं। हम जगत के, जीवन के | निकलेगी, कष्ट आएगा, ऊब मालूम पड़ेगी, घबड़ाहट मालूम नियम के विपरीत कोशिश में लगते हैं। फिर हार जाते हैं। फिर दुखी होगी, धोखा मालूम पड़ेगा। लेकिन अब मैं क्या कर सकता हूं! होते हैं। वचन जो मैने दिया था, उसे खींचना पड़ता है। एक आदमी जबान रहना चाहता है, तो जवान ही रहना चाहता __प्रेम थिर नहीं हो सकता। कोई चीज थिर नहीं हो सकती। सिर्फ है। उसे पता नहीं है कि उसके रहने की कोशिश भी उसको बूढ़ा एक चीज थिर है, वह है परिवर्तन। सिर्फ एक चीज नहीं बदलती कर रही है. रहने की कोशिश में भी जो समय और ताकत लगा रहा। है, वह है बदलाहट। और सब बदल जाता है। | 354
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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