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________________ * कर्ताभाव का अर्पण आंख, कि भीतर कोई मैं नहीं है। मैं सिर्फ भाषा का प्रयोग है। | भीतर से तू बदल जा। भीतर की बदलाहट एक ही बदलाहट है! सब छोड़ दे, तो मेरे साथ एक हो जाएगा। और इसे ही वे कहते | | भीतर का केंद्र या तो अहंकार हो सकता है, या परमात्मा। बस, हैं, इस अर्पण को ही वे कहते हैं संन्यास। इतनी हिम्मत की परिभाषा | दो ही केंद्र हो सकते हैं। भीतर दो तरह के केंद्र संभव हैं, या तो संन्यास की किसी और ने नहीं की है। परमात्मा केंद्र हो सकता है, या मैं—अहंकार-केंद्र हो सकता है। अर्जुन संसारी है पक्का। इससे पक्का और संसारी क्या होता | और जिनका भी परमात्मा केंद्र नहीं होता, वे भी बिना केंद्र के तो है? संसार में भेज रहे हैं उसे युद्ध में, और कहते हैं कि इसे मैं कहता | काम नहीं कर सकते, इसलिए अहंकार को केंद्र बनाकर चलना हूं संन्यास से युक्त हो जाना! तू युद्ध में जा और कर्ता को मेरी तरफ | पड़ता है। छोड दे। लड त और जान कि मैं लड रहा है। तलवार तेरे हाथ में अहंकार जो है, सूडो सेंटर है, झूठा केंद्र है। असली केंद्र नहीं है, हो, लेकिन जानना कि मेरे हाथ में है। गर्दन तू काटे, लेकिन जानना | तो उससे काम चलाना पड़ता है। वह सब्स्टीटयूट सेंटर है, परिपूरक कि मैंने काटी है। और गर्दन तेरी कट जाए, तो भी जानना कि मैंने केंद्र है। जैसे ही कोई व्यक्ति परमात्मा को केंद्र बना लेता है, इस काटी है। कर्म और कर्तृत्व को सब मुझ पर छोड़ देना, तो तू संन्यास | परिपूरक की कोई जरूरत नहीं रह जाती, यह विदा हो जाता है। से युक्त हुआ। इसलिए कृष्ण का जोर है कि तू सारे कर्ता के भाव को मुझ पर अर्जुन संन्यासी होना चाहता था, लेकिन पुराने ढब का संन्यासी | | छोड़ दे। और जो ऐसा कर पाता है, वह समस्त कर्म-फल से मुक्त होना चाहता था। वह भी संन्यासी होना चाहता था। वह यही कह | हो जाता है, शुभ और अशुभ दोनों से। उसने जो बुरे कर्म किए हैं, रहा था कि बचाओ मुझे। और बड़े गलत आदमी से पूछ बैठा। उसे उनसे तो मुक्त हो ही जाता है; उसने जो अच्छे कर्म किए हैं, उनसे कोई ढंग का आदमी चुनना चाहिए था। जो कहता कि बिलकुल भी मुक्त हो जाता है। ठीक! यही तो ज्ञान का लक्षण है। छोड़! सब त्याग कर! चल बुरे कर्म से तो हम भी मुक्त होना चाहेंगे, लेकिन अच्छे कर्म से जंगल की तरफ! मुक्त होने में जरा हमें कष्ट मालूम पड़ेगा। कि मैंने जो मंदिर बनाया गलत आदमी से पूछ बैठा। उसे पूछने के पहले ही सोचना था| था, और मैंने इतने रोगियों को दवा दिलवाई थी, और अकाल में कि यह आदमी जो परम ज्ञानी होकर बांसुरी बजा सकता है, इससे | | मैंने इतने पैसे भेजे थे, उनसे भी मुक्त कर देंगे? वह तो मेरी कुल जरा सोचकर बोलना चाहिए! पूछ बैठा। लेकिन शायद वहां कोई | संपदा है! और मौजूद नहीं था, और कोई उपाय नहीं था; पूछ बैठा। सोचा __ बुरे से छोड़ दें! मैंने चोरी की थी, बेईमानी की थी। क्योंकि उसने भी होगा कि कृष्ण भी कहेंगे कि ठीक है। यह संसार सब | | बेईमानी न करता, तो अकाल में पैसे कैसे भिजवा पाता? और माया-मोह है, छोड़कर तू जा! कैसा युद्ध? क्या सार है? कुछ | अगर चोरी न करता, तो यह मंदिर कैसे बनता? तो चोरी की थी, मिलेगा नहीं। और सीधी-सी बात है कि हिंसा में पड़ने से तो पाप | बेईमानी की थी, कालाबाजारी की थी, उनसे मेरा छुटकारा करवा ही होगा। तू हट जा। दो! लेकिन कालाबाजारी करके जो मंदिर बनाया था, और अकाल इसी आशा में उसने बड़ी सहजता से पूछा था। लेकिन कृष्ण ने | | में जो लोगों की सेवा की थी, और रोटी बांटी थी, और दवा-दारू उसे कुछ और ही संन्यास की बात कही; एक अनूठे संन्यास की | | भेजी थी, उसको तो बचने दो! बात कही; शायद पृथ्वी पर पहली दफा वैसे संन्यास की बात कही। लेकिन कृष्ण कहते हैं, दोनों से, शुभ अशुभ दोनों से! उसके पहले भी वैसे संन्यासी हए हैं. लेकिन इतनी प्रकट बात नहीं | क्योंकि कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि शुभ करने में भी अशुभ हो हुई थी। कहा कि तू सब कर्म कर, सिर्फ कर्ता को छोड़ दे, तो तू | | जाता है। शुभ भी करना हो, तो अशुभ होता रहता है। वे संयुक्त हैं। संन्यास से युक्त हो गया। फिर तुझे कहीं किसी वन-उपवन में जाने | | अगर शुभ भी करना हो, तो अशुभ होता रहता है। अगर मैं दौड़कर, की जरूरत नहीं। किसी हिमालय की तलाश नहीं करनी है। तू यहीं | | आप गिर पड़े हों, आपको उठाने भी आऊं, तो जितनी देर दौड़ता हूं, युद्ध में खड़े-खड़े संन्यासी हो जाता है। | उतनी देर में न मालूम कितने कीड़े-मकोड़ों की जान ले लेता हूं! न पहली दफा आंतरिक रूपांतरण का इतना गहरा भरोसा! बाहर मालूम कितनी श्वास चलती है, कितने जीवाणु मर जाते हैं! से कुछ बदलने की चिंता मत कर; बाहर तू जो है, वही रहा आ। मैं कुछ भी करूं इस जगत में, तो शुभ और अशुभ दोनों संयुक्त 329|
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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