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________________ गीता दर्शन भाग-4* भी मुझे चढ़ाया जाता है; वह सब मेरा ही अंग हो जाता है। | इतना भी नहीं कहते कि तू परमात्मा के साथ एक हो जा। कहते हैं, इसलिए हे अर्जुन, तू जो कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता है. | मेरे साथ एक हो जा। जो कुछ हवन करता है, दान देता है, जो कुछ स्वधर्माचरणरूप तप | अनेक लोगों को कृष्ण का यह वक्तव्य अहंकार से भरा हुआ करता है, वह सब मुझे अर्पण कर। इस प्रकार कर्मों को मेरे अर्पण मालूम पड़ता रहा है, सदियों-सदियों से। और जो लोग नहीं समझ करने रूप संन्यास-योग से युक्त हुए मन वाला तू शुभ-अशुभ पाते, उन्हें लगता है-थोड़ी अड़चन मालूम पड़ती है—कि कृष्ण फल रूप कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा, और उससे मुक्त हुआ मेरे | | भी कैसा आदमी है? थोड़ा तो संकोच खाना था! अर्जुन से सीधे को ही प्राप्त होगा। | ही कहे चले जाते हैं, छोड़ दे सब मुझ पर! सब धर्म-वर्म को छोड़ इस सूत्र में अंतिम दो-तीन बातें और खयाल ले लेने जैसी हैं। दे, मेरी शरण में आ! जो व्यक्ति अपना सब समर्पित कर देगा, अपने को पीछे बचाए | जरूर कृष्ण किसी और चैतन्य से बोलते हैं। यह उस नदी की बिना, विद नो विदहोल्डिंग, पीछे अपने को जरा भी बचाए बिना | आवाज है, जो सागर में गिर गई। अब नदी अगर यह भी कहे कि जो अपने को अशेष भाव से, सब कुछ, पूरा का पूरा, समग्रीभूत सागर में गिर जा, तो झूठ होगा। अब तो नदी यही कहती है कि मुझ रूप से समर्पित कर देगा, वह परमात्मा का हिस्सा हो जाता है। सागर में मिल जा। . हिस्सा कहना भी ठीक नहीं, भाषा की भूल है, वह परमात्मा ही हो | और अर्जुन को कठिनाई नहीं हुई इस बात से। गीता जिन्होंने भी जाता है। क्योंकि परमात्मा में कोई हिस्से नहीं होते, कोई विभाग | पढ़ी है, उनको कभी न कभी कठिनाई होती है। गीता के बड़े भक्त नहीं होता। हैं, उनको भी भीतर थोड़ा-सा खयाल आता है कि बात.क्या है? जब एक नदी सागर में गिरती है, तो सागर का हिस्सा नहीं हो कृष्ण को ऐसा नहीं कहना था, कोई और तरकीब से कह देते। यह जाती, सागर हो जाती है। सागर का हिस्सा तो हम तब कहें, जब | । सीधा क्या कहने की बात थी? क्या कृष्ण को भी अहंकार है? वह कि उसका कोई अलग-थलग रूप बना रहे। खोजने जाएं और | क्यों बार-बार इस मैं शब्द का उपयोग करते हैं? अर्जुन को तो मिल जाए-कि यह रही गंगा। सागर में उसकी धारा अलग बहती कहते हैं, तू सब छोड़! और खुद अपना मैं जरा भी नहीं छोड़ते हैं! रहे। कहीं नहीं बचती; सागर हो जाती है, फैल जाती है; एक हो | संदेह उठता ही रहा है। लेकिन अर्जुन के मन में जरा भी नहीं जाती है। उठा। अर्जुन ने बहुत सवाल पूछे, यह सवाल जरा भी नहीं पूछा कि तो ध्यान रखना, जब कोई परमात्मा से एक होता है, तो वह यह क्या बात है? मेरे मित्र हो, मेरे सखा हो, फिलहाल तो मेरे उसका अंश नहीं होता, परमात्मा ही हो जाता है; पूरा सागर हो जाता सारथी हो, ड्राइवर हो, थोड़ा तो खयाल करो कि मैं तुमसे ऊपर बैठा है; फैल जाता है; एक हो जाता है। हम परमात्मा के हिस्से नहीं हो | | हूं, तुम मुझसे नीचे बैठे हो; केवल मेरे रथ को सम्हालने के लिए सकते, क्योंकि परमात्मा कोई यंत्र नहीं है, जिसके हम हिस्से हो | | तुम्हें ले आया हूं, और तुम कहे जाते हो कि सब छोड़ और मेरी सकें। परमात्मा सागर जैसे चैतन्य का नाम है। उसमें कोई दीवालें | शरण आ! और विभाजन नहीं हैं। उसमें हम होते हैं, तो हम पूरे ही हो जाते हैं। जब कृष्ण ने कहा होगा, मेरी शरण आ, तो अर्जुन भी उनकी हम उसके साथ पूरे एक हो जाते हैं। आंखों में उस सागर को देख सका होगा। नदी उसे भी दिखाई इसलिए कृष्ण अगर इतनी हिम्मत से अर्जुन से कह सके कि मैं | पड़ती, तो वह भी पूछ लेता। उसे नदी नहीं दिखाई पड़ी होगी। ही हं वह, तो उसका कारण है। अगर इतनी हिम्मत से कह सके कि लेकिन यह बड़ा आत्मीय संबंध था। एक शिष्य और एक गुरु छोड अर्जन त सब, और मझ पर ही समर्पित हो जा। तो यह कृष्ण के बीच था, दो मित्रों के बीच था। अगर भीड़-भाड़ वहां भी खडी उस व्यक्ति के लिए नहीं कह रहे हैं, जो अर्जुन के सामने खड़ा था; | होती, तो जरूर भीड़ में से कोई चिल्लाता कि बंद करो! यह क्या यह उस व्यक्ति के लिए कह रहे हैं कृष्ण, जो उस सागर में गिरकर कह रहे हो? अपने ही मुंह से कह रहे हो कि मेरी शरण आ! मैं हो गए हैं। यह सागर की तरफ से कही गई बात है। लेकिन अब | भगवान हूं! चूंकि नदी अलग नहीं बची है, इसलिए नदी सीधी बात कहती है | | बड़ा आत्मीय नैकटय का वास्ता था। यह अर्जुन और कृष्ण के कि मेरे साथ एक हो जा। क्योंकि नदी अब सागर हो गई है। कृष्ण बीच निजी संबंध की बात थी। अर्जुन समझा होगा। देखी होगी उसने 328
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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