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* दैवी या आसुरी धारा
मैं उलझा रहूंगा। उन्होंने कहा, नौ बजे मैं बिलकुल नहीं आ सकता। | की तरफ भी जा सकता है, आखिरी नीचाई तक जा सकता है; और क्या तकलीफ है?
वह आखिरी ऊंचाई तक भी जा सकता है। वह निम्नतम हो सकता उन्होंने कहा, नौ बजे तक तो मैं स्नान वगैरह करके कोर्ट जाने | | है और श्रेष्ठतम भी। अब यह उस पर ही निर्भर है कि वह किस की तैयारी करता हूं।
धारा के वशीभूत होता है। तो मैंने उनको कहा कि आप पांच बजे आ जाएं। उन्होंने कहा दैवी धारा उसे कहते हैं, जो आपके भीतर रोज-रोज दिव्यता को कि पांच बजे भी नहीं आ सकता, क्योंकि साढ़े चार बजे तो दफ्तर | | बढ़ाती चली जाए। तो जांचते रहें अपने भीतर कि मैं जिस जीवन से लौटता हूं, थका-मांदा होता हूं।
| में चल रहा हूं, उसमें मेरी दिव्यता बढ़ रही है या घट रही है? तो मैंने उनसे पूछा कि आप मुझसे मिलना चाहते हैं कि मैं आपसे __ अक्सर तो ऐसा होता है कि बूढ़े लोग कहते हैं कि बचपन बहुत मिलना चाहता हूं? कौन किससे मिलना चाहता है, यह तय हो जाए! | अच्छा था; स्वर्ग था। इसका मतलब क्या हुआ? मैं बूढ़े कवियों
अनेक लोग ऐसे हैं, वे कहते हैं कि हम तो इसी वक्त नाव | को मिलता है, तो वे गीत गाते हैं बचपन के। वे कहते हैं, बचपन छोड़ेंगे; हवा को पूरब की तरफ ले जाना चाहिए। हवा को पूरब की स्वर्ग था। वह शांति! वह निर्दोषता! तरफ जाना है कि आपको पूरब की तरफ जाना है?
तो जिंदगीभर कहां बहे तुम? बचपन तो शुरुआत थी यात्रा की। फिर मैंने उनसे कहा कि सोना छोड़ नहीं सकते पंद्रह मिनट | | अब बूढ़े हो गए, अस्सी साल के हो गए, अभी भी कहते हो, पहले स्नान पंद्रह मिनट पहले कर नहीं सकते; दफ्तर से थककर बचपन बड़ा निर्दोष था, तो यह पूरी जिंदगी यात्रा तुमने किस दिशा आए, तो मिलने आ नहीं सकते। तो यह जो आप कहते हैं कि मुझे में की? गलत; कहीं तुम उलटे ही बहे। अन्यथा बूढ़े आदमी को परमात्मा की तलाश है, यह परमात्मा लास्ट आइटम मालूम पड़ता कहना चाहिए कि बचपन निर्दोष था, अब महानिर्दोषता फलित हुई है! यह आखिरी, फेहरिस्त में आखिरी मालूम पड़ता है। क्योंकि | है। बचपन आनंद था, लेकिन इस आनंद के सामने कुछ भी नहीं नींद भी इससे महत्वपूर्ण है, दफ्तर भी इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है, था, जो आज उतरा है। तब तो यात्रा बढ़ती हुई, तब तो आप दिव्य थकान भी इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है। तो ऐसा मालूम पड़ता है कि की ओर बढ़े। परमात्मा पर बड़ा उपकार कर रहे हैं!
अगर एक आदमी बगीचे की तरफ जाता है, तो बगीचा नहीं भी कृष्ण कहते हैं, यह मूढ़ता है, यह मूढ़-भाव है। | आता. तो भी बहत पहले ठंडी हवाएं मालम पड़ने लगती हैं. तो
अमूढ़, बुद्धिमान वह है, जो अपने को दैवी प्रकृति के आश्रित | | भरोसा बढ़ता है कि बगीचा करीब होगा। अभी बगीचा नहीं आया, कर लेता है। जो चौबीस घंटे इस खोज में रहता है कि परमात्मा की। | लेकिन फूलों की सुगंध आने लगती है, तो भरोसा बढ़ता है कि तरफ कहां हवा बह रही है, मैं उसमें सम्मिलित हो जाऊं। मेरे सहारे बगीचा करीब होगा। अभी बगीचा नहीं आया, लेकिन पक्षियों की तो शायद मैं न जा सकू। शायद अकेला मेरा इतना बल नहीं; शायद चहचहाहट सुनाई पड़ने लगती है, तो भरोसा बढ़ता है कि बगीचा मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं; लेकिन हवा जब बह रही हो, तो मैं | करीब आया। अगर आप बगीचे की तरफ बढ़ रहे हैं, और पक्षियों सम्मिलित हो जाऊं।
की आवाज खो जाती है, फूलों की सुगंध आनी बंद हो जाती है, हम भी खोजते हैं हवाएं, लेकिन हम वे हवाएं खोजते हैं, जो हमें फिर ठंडी हवाओं का भी पता नहीं चलता, तो एक दफा तो रुककर नर्क की तरफ ले जाएं। हवाओं का कोई कसूर नहीं है। आप खोल सोचें कि बगीचे की तरफ बढ़ रहे हैं कि बगीचे से विपरीत चले जा लेते हैं पालं बेवक्त, फिर दुख पाते हैं। समझदार आदमी समय पर पाल खोलना जानता है। और सदा तलाश में रहता है कि कब पाल | - हम जिसे जिंदगी कहते हैं, वह जिंदगी हमें और घने दुख में ले बंद कर ले, कब पाल को खोल ले; कब नाव को छोड़ दे; कब | | जाती है। हम जिसे जिंदगी कहते हैं, वह और बड़े नर्कों का द्वार नाव को रोक ले। थोड़े ही दिन में उसे पता चल जाता है कि इस | खोलती चली जाती है। तो हम विकसित होते हैं या पतित होते हैं? जीवन में दो धाराएं हैं, दो आकर्षण हैं, दो मैग्नेट्स हैं, जो काम | | हम नीचे गिरते हैं या ऊपर उठते हैं? कर रहे हैं।
दैवी धारा का अर्थ है, जहां से भी, जिस परिस्थिति में भी, जिस जैसा मैंने आपको कल कहा कि मनुष्य अपूर्ण है और वह नीचे घटना में भी खड़े हों, वहां तत्काल खोजें कि इसमें दैवता की तरफ
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