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गीता दर्शन भाग-44
जाने का मार्ग क्या है? और मैं आपसे कहता हूं, ऐसी कोई घटना | कुछ भी नहीं कर सकता, कोई उपाय नहीं है। आप कहां है, यह नहीं है, जहां दोनों धाराएं मौजूद न हों।
| सवाल नहीं है। आपकी अंतर्धारा किस ओर बही जा रही है! एक आदमी आपको गाली देता है। आप यह भी सोच सकते हैं ___ मैंने सुना है कि एक साधु और एक वेश्या की एक साथ मृत्यु कि इस आदमी ने गाली दी। अगर ऐसे मैंने बरदाश्त कर लिया, हुई, एक ही दिन। आमने-सामने घर था। मृत्यु के दूत लेने आए, तब तो हर कोई मुझे गाली देने लगेगा। इसका मुंह बंद करना जरूरी | तो दूत बड़ी मुश्किल में पड़ गए। उन्हें फिर जाकर हेड आफिस में है। आपने एक धारा चनी। आप वहीं खडे होकर यह भी सोच पता लगाना पड़ा कि मामला क्या है। क्योंकि सकते थे कि इस आदमी ने एक ही गाली दी; सिर्फ गाली ही दी, | मालूम पड़ती है। साधु को ले जाने की आज्ञा हुई है नर्क, और वेश्या मुझे मारा नहीं। बड़ी कृपा है। आदमी बड़ा भला है। मार भी सकता को आज्ञा हुई है स्वर्ग! तो उन्होंने कहा, इसमें जरूर कहीं भूल हो था। आपने दूसरी धारा चुनी।
| गई है! साधु बड़ा साधु था; वेश्या भी कोई छोटी वेश्या नहीं थी। प्रत्येक घटना में दोनों धाराएं मौजूद हैं, चुनाव आपका है। ऐसा | मामला सीधा साफ है, गणित में कोई गड़बड़ है। वेश्या को नर्क आदमी नहीं है बुरे से बुरा, जिसमें परमात्मा की झलक न हो। और जाना चाहिए, साधु को स्वर्ग जाना चाहिए। ऐसा आदमी नहीं है भले से भला, जिसमें आप शैतान को न खोज काश, जिंदगी इतनी सीधी होती, तो सभी वेश्याएं नर्क चली लें। चुनाव आपका है। चुनाव बिलकुल आपका है। और जो आप | | जातीं और सभी साधु स्वर्ग चले जाते। लेकिन जिंदगी इतनी सीधी चुनेंगे, वही आपके जीवन का प्रवाह हो जाएगा। . नहीं है, जिंदगी बहुत जटिल है। तो कृष्ण कहते हैं, दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन | ऊपर से पता लगाकर लौटे। खबर मिली कि वही ठीक आज्ञा
है, वेश्या को स्वर्ग ले आओ, साधु को नर्क। उन्होंने पूछा, थोड़ा और महात्मा का इतना ही अर्थ होता है कि जो दैवी प्रकृति के हम समझ भी लें, क्योंकि हम बड़ी दुविधा में पड़ गए हैं। तो दफ्तर आश्रित हुआ, जो अब सब जगह दैवता का मार्ग खोजता है, जो से उन्हें खबर मिली कि तुम जरा नए दूत हो; तुम्हें अनुभव नहीं है। सब जगह मंदिर की तलाश करता है।
पहले ही दिन ड्यूटी पर गए थे। पुरानों से पूछो! यह सदा से होता मैंने लोगों को मंदिर में जाते देखा है। वहां वे पता नहीं क्या आया है; यही नियम है। फिर भी उन्होंने कहा, थोड़ा हम समझ लें। तलाश करते हैं। अगर मंदिर में बैठे हुए लोगों की बातचीत सनें, तो पता चला कि जब भी साध के घर में सबह कीर्तन होता. तो तो पता चलेगा कि वे क्या बात कर रहे हैं! साधु समझा रहे हैं, उनके वेश्या रोती अपने घर में। सामने ही घर था। रोती, रोती इस मन से आस-पास बैठी हुई स्त्रियों की बातचीत सुनें कि वे क्या बातचीत कि मेरा जीवन व्यर्थ गया। कब वह क्षण आएगा सौभाग्य का कि कर रही हैं?
ऐसे कीर्तन में मैं भी सम्मिलित हो जाऊं! मन भी होता, तो कभी स्त्रियां इसलिए कह रहा हूं कि पुरुष तो अब साधुओं को सुनने द्वार के बाहर निकल आती। साधु के मंदिर के पास कान लगाकर जाते ही नहीं, इसलिए उनकी बात छोड़ दें। या जाते भी हैं, तो कुछ खड़ी हो जाती दीवाल के। लेकिन मन में ऐसा लगता कि मुझ जैसी अपनी पत्नी के पीछे चले जाते हैं, कुछ दूसरों की पत्नियों के पीछे | | पापी मंदिर में कैसे प्रवेश करे! तो कहीं साधु को पता न चल जाए, चले जाते हैं। साध से कछ लेना-देना नहीं होता।
इसलिए चुपचाप छिप-छिपकर कीर्तन सुन लेती। मंदिर की सुगंध ये जो बैठे हुए लोग हैं, इनसे पूछे कि वहां किसलिए जाते हैं? | उठती, धूप जलती, मंदिर के फूलों की खबर आती, मंदिर का घंटा क्या बात करते हैं? क्या सोचते हो मंदिर में बैठकर? चर्च में भी | बजता; और चौबीस घंटे, पूरे जीवन वेश्या मंदिर में रही। चित्त बैठकर चिंतन क्या चलता है? मस्जिद में भी भीतर क्या होता रहता | | मंदिर में घूमता रहा, घूमता रहा, घूमता रहा। और एक ही कामना है? क्योंकि मस्जिद काम नहीं आएगी; वह जो भीतर हो रहा है, | | थी कि अगले जन्म में चाहे बुहारी ही लगानी पड़े, पर मंदिर में ही वही काम आएगा।
जन्म हो। मंदिर के द्वार पर ही! वेश्या के घर में भी बैठकर अगर भीतर दैवी आश्रित कोई बह। साधु भी कुछ पीछे न थे वेश्या से। जब भी वेश्या के घर रात रहा हो, तो शायद परमात्मा तक पहुंच जाए। और मंदिर में भी | | राग-रंग छिड़ जाता, आधी रात होती, तो वे करवट बदलते रहते! बैठकर अगर भीतर कोई उलटी धारा में जा रहा हो, तो परमात्मा वे सोचते, सारी दुनिया मजा लूट रही है। हम कहां फंस गए! और
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