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तत्वज्ञ-कर्मकांड के पार ... 153
दक्षिणायण अर्थात अचेतन और समूह अचेतन / उत्तरायण अर्थात अति-चेतन और ब्रह्म-चेतन / पश्चिम का नैतिक ह्रास और आध्यात्मिक पतन-केवल दक्षिणायण को जानने के कारण / भौतिक समृद्धि-आध्यात्मिक खोज का प्रारंभ बिंदु / पतन को स्वाभाविक मान लेने का.खतरा / मनोविश्लेषण की भ्रामक दिशा-विकार जारी हैं; अब अपराधभाव नहीं होता / फ्रायड की अधूरी खोजों के घातक परिणाम / अधोगमन और ऊर्ध्वगमन दोनों को जान लेने वाला फिर मोहित नहीं होता / आकर्षण सदा ही विपरीत का / विपरीत से आकर्षण भी-संघर्ष भी / दो समानधर्मा व्यक्तियों के बीच विकर्षण / तत्व से जानना अर्थात स्वानुभव / विपरीत के बीच डोलने वाला शांत नहीं हो सकता / दूर जाना—पास आना : द्वंद्वात्मक प्रेम-संबंध / अति भोजन-उपवास / मुक्ति का सूत्र-मध्य में होना / परमात्मा संसार का विपरीत ध्रुव नहीं है / कृष्ण सर्वाधिक मध्य में जीने वाले / अचुनाव में जीने वाले-बेबूझ कृष्ण / कृष्ण महायोगी हैं / योगयुक्त व्यक्ति जो सम है / परमात्मा को चुनना-संसार के खिलाफ / तत्व से जानने वाले के लिए-शास्त्रज्ञान, तप, यज्ञ, दान आदि व्यर्थ हो जाते हैं / पंडित का मिथ्या ज्ञान / कबीर और नानक का स्वानुभव / अनुभूति के बाद ही शास्त्रों में अर्थवत्ता /धर्मों के क्रिया-कांड / खंडन, मंडन-दोनों करुणावश करना / तप के नाम पर प्रचलित-आत्म-पीड़न और पर-पीड़न /सम्यक तप-सत्य की खोज में कष्टों का स्वीकार / दान का गहरा अर्थ-अपरिग्रह / अपना-पराया-भाव न हो, तो दान की महत्ता क्षीण हो जाती है / कबीर का हर किसी को भोजन के लिए निमंत्रण देना / बेटे कमाल को चोरी में सहायता करना / तत्वविद का अभेद-बोध / कृष्ण का संदेश-नीति-अतीत है । परम नीति है-समस्त नीति के पार हो जाना।