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* तत्वज्ञ-कर्मकांड के पार *
मुकर जाएगा कि इस पर हम नहीं जाते। इस पर तो फूल बिछे हैं! का गहरा अर्थ है, अपरिग्रह। हम, जो जरूरी हो, उतना काफी; शेष और सत्य के रास्ते पर तो सूली ही लगती है; फूल कहां! सब उन्हें दे दें, जिन्हें उसकी जरूरत है। और कभी ऐसा क्षण भी आ
यह आदमी सूली में उत्सुक है, सत्य में नहीं। यह कांटों में जाए कि हमसे ज्यादा जरूरत किसी को हो, तो भी हम दे दें। उत्सक है, सत्य में नहीं। तो यह अपने लिए कांटे निर्मित करता | लेकिन कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति दान से भी मक्त हो जाता रहेगा। ऐसा तप रुग्ण है।
है। यह और भी कठिन मालूम पड़ेगा। क्योंकि इसका अर्थ हुआ लेकिन वह एक प्रतिशत तप भी, कृष्ण कहते हैं, छूट जाता है। कि वैसा व्यक्ति दान नहीं करता है। निश्चित ही! जब तत्व का बोध हो जाए, तो तप करने की क्या नहीं, इसका यह अर्थ नहीं कि वैसा व्यक्ति दान नहीं करता। जरूरत रही? जब मंजिल मिल जाए, तो रास्ते पर दौड़ने का फिर | इसका यह अर्थ हुआ कि वैसा व्यक्ति अब पाता ही नहीं कि कोई क्या प्रयोजन है? फिर कोई भी प्रयोजन नहीं है। अगर कभी सत्य | पराया है। वैसा व्यक्ति अब पाता ही नहीं कि मैं अलग हूं। वैसा को पा लेने वाला भी तप करता है, तो उसका एक ही कारण होता | व्यक्ति अब पाता ही नहीं कि यह जगत और मेरे बीच कोई फासला है, ताकि दूसरे तप को सहने की सामर्थ्य को पैदा कर लें। और कोई | है। वैसा व्यक्ति दान नहीं करता, उसका इतना ही अर्थ है कि वैसे प्रयोजन नहीं होता।
व्यक्ति के पास अब दान करने को कुछ बचा नहीं; उसने स्वयं को अगर महावीर ने ज्ञान के बाद भी उपवास किए, तो इसलिए नहीं | ही दान कर दिया है। अब सब समर्पित हो गया है; सब विसर्जित हो कि अब उन्हें उपवास की कोई भी जरूरत थी। और अगर महावीर गया है। एक छोटी-सी घटना कहूं, शायद उससे खयाल में आए। ज्ञान के बाद भी नग्न ही बने रहे, उन्होंने वस्त्र न पहने, तो इसका कबीर के घर बहुत लोग इकट्ठे होते हैं रोज। वे रोज उन्हें भोजन यह कारण नहीं कि वस्त्रों से उन्हें अब कोई भय था, और नग्न रहने करा देते हैं। कबीर का बेटा मुश्किल में पड़ गया है। और उसने की कोई जरूरत थी। लेकिन जो पीछे लोग आ रहे हैं, अगर महावीर कहा, हम पर कर्ज होता चला जाता है। रोज लोग आते हैं, आप उपवास छोड़ दें, नग्नता छोड़ दें, महावीर वापस महल में आकर | रोज उनसे जाते वक्त कहते हैं, भोजन कर जाओ। वे भजन-कीर्तन रहने लगें, तो वे जो पीछे आने वाले लोग हैं, वे बीच की यात्रा कभी करने आते हैं, उनको जाने दें; भोजन के लिए मत रोकें। कबीर रोज कर ही न पाएंगे। शायद वे यही समझेंगे कि महावीर को अपनी भूल | कहते कि कल खयाल रखूगा। कल फिर वही भूल होती। लोग पता चल गई, लौट आए अपने घर! हम पहले से ही अपने घर हैं। | भजन-कीर्तन करने सुबह आते, और जब जाने लगते, तो कबीर अच्छा हुआ, झंझट में न पड़े!
कहते, भोजन तो कर जाओ! __ महावीर को महल का अब कोई भय नहीं है। महावीर के लिए | आखिर एक दिन उसके बेटे ने कहा कि अब यह असंभव है महल और जंगल बराबर हो गए। लेकिन फिर भी महावीर जंगल | और आगे खींचना। क्या मैं चोरी करने लगू? कर्ज बढ़ता चला में रहे चले जाते हैं, केवल उन लोगों के प्रति करुणावश, जिनको | जाता है! अभी महल के कारागृह से ऊपर उठना है।
तो कबीर एकदम आनंदित हो गए और उन्होंने कहा, पागल, वैसा व्यक्ति अगर तप जारी भी रखे, तो सिर्फ इसलिए; अगर | | अगर चोरी से यह हल हो सकता था, तो तूने पहले क्यों न सोचा? वैसा व्यक्ति वेद की चर्चा भी जारी रखे, तो सिर्फ इसलिए कि किसी | | कमाल तो थोड़ा दिक्कत में पड़ा; उनका बेटा तो दिक्कत में पड़ा। के काम पड़ जाए। वैसा व्यक्ति अगर यज्ञ में भी सहयोगी हो, तो | | समझा उसने कि शायद कबीर समझ नहीं पाए कि मैंने क्या कहा, इसीलिए कि जो अभी तत्व तक नहीं उठ सकते, वे शायद रिचुअल | | चोरी! उसने कहा, आप समझे भी! सुना भी! मैं कह रहा हूं, क्या के माध्यम से, उपासना से, कोई क्रिया-कांड से सहारा पा लें और | | मैं चोरी करने लगू? कबीर ने कहा, बिलकुल समझा। लेकिन इतने ऊपर उठ जाएं।
दिन से तेरी बुद्धि कहां गई थी? कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति दान से भी मुक्त हो जाता है। कमाल ने कहा, अब बात को आखिर तक ही खींचना पड़ेगा। दान भी सत्य की खोज में एक सहयोगी मार्ग है। दान का अर्थ है, | कमाल था बेटा, और कमाल का ही बेटा था। कबीर ने उसे नाम जो भी हम दे सकें, वह दे दें; और जिसको जरूरत हो, उसे दे दें। दिया था और अदभुत बेटा था। उसने कहा, तो फिर ठीक है। तो दान का मौलिक अर्थ है, हम, जो व्यर्थ है, उसे संगृहीत न करें। दान | आज मैं चोरी को जाता हूं।
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