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________________ * ज्ञान, भक्ति, कर्म यह कुफ्र है, यह पाप है। | ईश्वर की तरफ जाता है, उसको पत्नी और प्रेयसी मानकर, तब ठीक है; भक्त की दृष्टि से यह पाप है। ज्ञानी की दृष्टि से, | पुरुष जितनी अभिव्यक्ति दे सकता है प्रकट, एक अर्थ में निर्लज्ज, भगवान अलग है, यह अज्ञान है। भक्त की दृष्टि से, मैं भगवान | उतनी स्त्री नहीं दे सकती। इसलिए उर्दू या अरबी या ईरानी, इन हूं, ऐसी घोषणा पाप है। और दोनों सही हैं। इससे जटिलता होती | भाषाओं में जो प्रेम की भंगिमा प्रकट हुई, और थोड़े से शब्दों में है। इससे जटिलता होती है, क्योंकि दूसरे के मार्ग को समझने में | प्रेम का जो प्रगाढ़ रूप प्रकट हुआ, वह दुनिया की किसी भाषा में हमें बड़ी कठिनाई होती है। नहीं हो सका है। उसका कुल मात्र कारण यही था कि परमात्मा को यह जो भक्त है, इसकी खोज का तारा है प्रेम। और यह कहता| प्रेयसी मानते से ही, अब कोई अड़चन न रही, अब गीत कोई भी है कि प्रेम काफी है; जानना व्यर्थ है। प्रेम में लीन हो जाना सार्थक गाया जा सकता है। है। क्योंकि प्रेम में आत्मक्रांति घटित हो जाती है। | और पुरुष गा रहा है। और पुरुष तो आक्रामक है, इसलिए वह कृष्ण कहते हैं, ऐसे जो लोग हैं, वे स्वामी-सेवक भाव से, या | संकोच नहीं करेगा। वह संकोच करे, तो पुरुष कम है, इसकी खबर प्रेमी-प्रेमिका के भाव से, या किन्हीं और रूपों में, लेकिन संबंध में | | देगा। स्त्री संकोच न करे, तो स्त्रैण न रही। संकोच में ही उसका मुझे सोचते हैं। वे कोई संबंध निर्मित करते हैं। सौंदर्य है। और निस्संकोच आक्रमण में ही पुरुष का शौर्य है। भक्तों ने सब तरह के संबंध बनाए हैं। भक्त या तो परमात्मा को प्रेयसी मान ले, या प्रेमी मान ले, ये . जैसे सूफियों ने बहुत प्यारा संबंध बनाया है। ऐसी हिम्मत कोई | दो रूप हैं। सूफियों ने वह रूप चुना परमात्मा को प्रेयसी मानने का; हिंदू साधक नहीं कर सका। हिंदू साधकों ने जो भी संबंध बनाए हैं, | हिंदुओं ने परमात्मा को प्रेमी मानने का रूप चुना। वे इतने हिम्मतवर नहीं हैं। हिंदू धारणा में परमात्मा पुरुष है और | लेकिन और भी प्रेम के रूप हैं। क्योंकि प्रेम के कितने रूप हैं! साधक उसकी प्रेयसी, पत्नी, दासी के भाव से चलता है। | परमात्मा मां हो सकता है, परमात्मा पिता हो सकता है, परमात्मा . सूफियों ने हद कर दी। उन्होंने परमात्मा को प्रेयसी बना दिया | पुत्र हो सकता है; वे सारे रूप भी चुने गए। वे सारे रूप भी चुने और खुद प्रेमी! परमात्मा को प्रेयसी और खुद प्रेमी! इस वजह से | गए। परमात्मा मां हो सकता है, तब उसके साथ प्रेम की जो धारा ही इस्लाम के प्रभाव में जो भी काव्य की धाराएं पैदा हुईं, सूफियों | बहेगी, उसका ढंग और होगा। बेटा भी मां को प्रेम करता है। के संपर्क में जो भी काव्य पैदा हुए—चाहे अरबी, चाहे ईरानी और | | लेकिन इस प्रेम का ढंग और होगा, रंग और होगा; इसकी चाल चाहे उर्दू-उन काव्यों में प्रेम की जो झलक उठी, वह हिंदुस्तान की | | और होगी। परमात्मा को पिता भी मानकर कोई प्रेम कर पाता है। किसी भाषा में पैदा हुए काव्य में नहीं उठ सकी। उसका कारण था। | | लेकिन एक बात तय है, कोई भी संबंध हो. भक्त संबंध खोजेगा उसका कारण था, क्योंकि जब परमात्मा को प्रेयसी बना दिया, तो | | ही, क्योंकि संबंध ही उसके प्रेम के लिए मार्ग बनेगा। लेकिन सब द्वार खुल गए। तब परमात्मा के साथ प्रेम की सारी खुलकर | इसका यह अर्थ नहीं है कि भक्त एकता को उपलब्ध नहीं होता। चर्चा हो सकी। फिर कोई बात ही न रही। एकता को उपलब्ध होता है-संबंधों की सघनता से, संबंधों के ___ध्यान रहे, अगर परमात्मा पुरुष है और भक्त स्त्री है, पत्नी है, | नैकटय से, संबंधों की आत्मीयता से। प्रेयसी है, तो स्त्री लज्जावश प्रेम का निवेदन भी बहुत-बहुत | और सच तो यह है कि बाकी हमारे जीवन के सारे संबंध सिर्फ झिझककर करती है। करेगी ही। इसलिए हिंदू भक्तों ने जो गाया है, | हमें धोखा देते हैं कि हम एक हो गए, एक हम हो नहीं पाते हैं। न वह बहुत झिझकपूर्ण है। मीरा कितनी ही हिम्मत करे, लेकिन मीरा | कोई पति पत्नी से एक हो पाता है; न कोई बेटा किसी मां से एक ही है। हिम्मत कितनी ही करे—बहुत हिम्मत की है लेकिन हिम्मत | हो पाता है; न कोई मित्र किसी मित्र से एक हो पाता है। कभी छिपी-छिपी है। जैसा कि स्त्री का स्वभाव है। वह अगर कहती भी | क्षणभर को वहम होता है। कभी क्षणभर को ऐसा लगता है कि एक है, तो बड़े परोक्ष, बड़े पर्दे और बड़ी ओट से कहती है। चूंघट उसका | हो गए; और लग भी नहीं पाता कि विछोह शुरू हो जाता है। सिर्फ पड़ा ही रहता है। वह कहती है चूंघट उठाने की बात, फिर भी वह परमात्मा के साथ, उसके दोहरेपन में भी, उसके द्वैत में भी एकता बूंघट के पीछे से ही कहेगी। अनिवार्य है; होगा ही ऐसा। सध जाती है। वह फिर टूटती नहीं। लेकिन जब कोई सूफी फकीर प्रेमी की तरह, पुरुष की तरह इसलिए भक्ति जो है, वह प्रेम की शाश्वतता है, वह प्रेम की 253
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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