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________________ गीता दर्शन भाग-44 चरम ऊंचाई है। और जितने भी प्रेमी दुनिया में तकलीफ पाते हैं, अब कोई व्यक्ति है, वह पहुंच जाता है किसी साधु-संन्यासी के उस तकलीफ का कारण प्रेम नहीं है, उस तकलीफ का कारण यह | | पास। साधु-संन्यासी उसे समझाता है कि शांत बैठो, एक घंटेभर है कि वे प्रेम से जो चाह रहे हैं, वह केवल भक्ति से मिल सकता | बिलकुल शांत, निश्चल होकर बैठ जाओ। वह एक सेकेंड शांत है। जो वे प्रेम से चाह रहे हैं, वह प्रेम से नहीं मिल सकता। नहीं बैठ सकते, घंटाभर! उनके लिए ऐसा कष्टपूर्ण हो जाता है कि प्रेम से क्षण का संबंध ही मिल सकता है; प्रेम से शाश्वतता नहीं | घंटेभर वे बैठेंगे, तो उस वक्त पाएंगे कि दुनियाभर में जितनी मिल सकती। लेकिन जब भी कोई प्रेम से शाश्वतता मांगने लगता परेशानी है. सब उन पर आ गई है। इससे तो जब वे भाग-दौड में है, तभी दुख में पड़ जाता है। शाश्वतता भक्ति से मिल सकती है। रहते हैं, तभी शांत रहते हैं। वह एक ऐसा द्वैत है, जिसके भीतर सदा के लिए अद्वैत सध सकता इसलिए अक्सर लोगों को खयाल में आता है कि जब वे ध्यान है। बाकी हमारे सब द्वैत ऐसे हैं कि जिनके भीतर झलक मिल जाए, करने बैठते हैं, तब उनकी अशांति बढ़ जाती है। उसका मतलब है तो भी बहुत है। झलक भी लेकिन काफी है। और झलक को भी | कि वह टाइप उनका ध्यान वाला नहीं है। उनके लिए कर्म ही ध्यान बुरा कहने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि शायद वही झलक हमें | | का द्वार बनेगा। ध्यान उनके लिए सीधा द्वार नहीं बन सकता। उन्हें और ऊपर उठाने के लिए इशारा बने। लेकिन जो उस झलक में ही | | किसी ऐसे कर्म की जरूरत है, जिसमें वे पूरा लीन हो जाएं। इस उलझ जाता है, वह खो जाता है। भक्त प्रेम की खोज है। | बुरी तरह डूब जाएं कि कर्ता न बचे, कर्म ही रह जाए। फिर वह कुछ कृष्ण कहते हैं, और तीसरे लोग भी हैं, जो बहुत प्रकार से मुझे भी हो-चाहे वे कोई चित्र बना रहे हों, और चाहे कोई मूर्ति बना उपासते हैं। ये तीसरे लोग मूलतः कर्म से संबंधित होते हैं। | रहे हों, और चाहे किसी के पैर दाब रहे हों, और चाहे गड्डा खोद ये तीन हिस्से हैं। मनुष्य के मनस के, मनुष्य के मन के तीन | | रहे हों, और चाहे बगीचा लगा रहे हों—वह कोई भी कर्म हो; कोई हिस्से हैं, ज्ञान, भाव और कर्म। ज्ञान हमारे मस्तिष्क को केंद्र | ऐसा कर्म, जो उनकी उपासना बन जाए। बनाकर जीता है; भाव हमारे हृदय को केंद्र बनाकर जीता है; कर्म | | लेकिन अगर आपको अपने टाइप का ठीक-ठीक पता नहीं है, हमारे हाथों को केंद्र बनाकर जीता है। | तो आप मुश्किल में पड़ते रहेंगे। और एक कठिनाई जरूरी रूप से अब जैसे जीसस; जीसस कहते हैं कि अगर तू प्रार्थना करने | पैदा हो जाती है। वह इसलिए पैदा हो जाती है कि सभी प्रकार के आया है मंदिर में और तुझे खयाल आ जाए कि तेरा पड़ोसी बीमार | लोगों ने इस जगत में परमात्मा को पाया है। एक चैतन्य ने नाचकर है, तो मंदिर को छोड़, पड़ोसी की सेवा में जा; वही उपासना है। | भी पाया है। और एक बुद्ध ने शरीर का जरा भी अंग न हिलाकर जीसस कहते हैं, सेवा ही धर्म है। भी पाया है। चैतन्य नाचकर पाते हैं, बुद्ध बिलकुल शरीर को . इसलिए ईसाइयत ने दुनिया में धर्म की एक बिलकुल नई प्रतिभा | निश्चल करके पाते हैं। को जन्म दिया। वह प्रतिभा थी सेवा की। और ईसाइयों ने जितनी | अब संयोग से अगर आप बुद्ध के पास से गुजर गए, तो आप सेवा की है, उतनी सारी दुनिया के सारे लोगों ने मिलकर भी नहीं बिना सोचे-समझे बुद्ध के पास शांत होकर बैठने की कोशिश की है। कर भी नहीं सकेंगे। क्योंकि कर्म ही उपासना है, ऐसे गहन करेंगे। या संयोग से आप चैतन्य के पास से गुजर गए, तो आप भाव पर सारी ईसाइयत की दृष्टि खड़ी है। कर्म ही उपासना है। भूल | | चैतन्य की तरह नाचने की कोशिश करेंगे। लेकिन इस बात को पहले 1. चलेगा: कर्म को मत भल जाना। ज्ञानी कहेगा. ठीक से जान लें कि आप क्या हैं? क्या आपके लिए उचित होगा? भूल जाओ कर्म को, चलेगा; परमात्मा को मत भूल जाना। ___ इधर मैंने अनुभव किया है कि अगर आपके टाइप का यह जो तीसरा मार्ग है-हममें बहुत लोग हैं, जिनके व्यक्तित्व | ठीक-ठीक खयाल हो जाए, तो साधना इतनी सुगम हो जाती है, का केंद्र कर्म है; जो कुछ करेंगे, तो ही पा सकेंगे। उनसे अगर कहा | | जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। टाइप का ठीक खयाल न हो, जाए, खाली बैठ जाएं, शांत बैठ जाएं, तो वे और भी अशांत हो | | तो साधना अकारण कठिन हो जाती है। और ध्यान रहे, दूसरे के जाएंगे। इसलिए बहुत लोग हैं, दिक्कत में पड़ते हैं। इसलिए मैंने टाइप से पहुंचने का कोई भी उपाय नहीं है। जन्मों-जन्मों खो सकते पहले कहा कि मार्ग का ठीक-ठीक चयन न हो पाए, तो हम व्यर्थ | हैं, अगर आप अपने को न पहचान पाए कि आपके लिए क्या ही कष्ट पाते हैं। उचित हो सकता है। जाओ परमात्म 254
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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