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________________ * जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन-उत्तरायण पथ * अगर किसी को कभी संभोग का कोई क्षणभर का भी अनुभव है, पश्चिम में जीवशास्त्री बायो-एनर्जी कहते हैं, जीव-ऊर्जा कहते हैं, तो ध्यान में जब वह पहली दफे जाता है...। तो निरंतर मुझे लोग उस जीव-ऊर्जा को भारत ने सदा सूर्य के प्रतीक में समझा है। आकर कहते हैं, बड़ी हैरानी की बात है, आज ध्यान में भीतर गया, क्योंकि समस्त जीव-ऊर्जा सूर्य से ही प्राप्त होती है। अगर फूल तो ऐसा लगा जैसे भीतर कोई गहन-गहन संभोग घटित हो रहा खिलता है, पौधे बड़े होते हैं, आदमी के गर्भ का विकास होता है, है-आरगाज्म। आदमी बढ़ता है, तो सब सूर्य के कारण। हमारे भीतर जो अभी एक अंग्रेज युवती मेरे पास ध्यान में प्रयोग कर रही थी। जीव-ऊर्जा है, वह सूर्य से ही हमें उपलब्ध होती है। इसलिए बहुत उसे जिस दिन पहली दफा ध्यान की घटना घटी, उसने मुझे आकर उचित है कि उस भीतर की ऊर्जा के लिए भी सूर्य का ही प्रयोग कहा, मैं हैरान हूं, क्योंकि मैं जीवनभर से एक ही तलाश में थी कि किया जाए, ठीक वैसे ही जैसे तारे के झलकने को हम पानी के डबरे मुझे कोई तृप्तिदायी संभोग का क्षण मिल जाए...। में देखें और दोनों में संबंध जोड़ लें। उसने न मालूम कितने पति बदले हैं, और न मालूम कितने साथी | ___ आदमी की चेतना में जो भी घटनाएं घटती हैं, वे बहुत गहन रूप बदले हैं, और न मालूम कितने पुरुषों के साथ रही है, सिर्फ इस | | से सूर्य से संबंधित हैं। तो मनुष्य को भी हम दो हिस्सों में तोड़ लें; आशा में कि किसी दिन संभोग का ऐसा क्षण मिल जाए। इस | भूमध्य रेखा बना लें, मनुष्य के कामवासना के केंद्र से एक रेखा आदमी से नहीं मिलता, दूसरे से मिल जाए, तीसरे से मिल जाए। | खींच दें; तो नीचे का हिस्सा दक्षिणपथ होगा, ऊपर का हिस्सा ध्यान के पहले अनुभव में उसने मुझे आकर कहा कि मैं हैरान | उत्तरपथ होगा। हूं। जिसकी खोज मैं संभोग में कर रही थी, वह तो मुझे कभी नहीं ___ जब जीव-ऊर्जा दक्षिण की तरफ उतरती रहती है, यानी पैरों की मिला। लेकिन ध्यान में मुझे पहली दफे वह मिला है, जिसकी कोई तरफ उतरती रहती है, तब जो मृत्यु घटित होती है, वह एक तरह धुंधली-सी आकांक्षा मेरे भीतर थी। मैं गहन संभोग में उतर गई। की मृत्यु है। और जब जीव-ऊर्जा काम-केंद्र से ऊपर की तरफ स्वभावतः, संभोग और ध्यान के उस अनुभव में कोई ऐसा | उठती है और सिर की तरफ प्रवाहित होती है, उत्तरपथ की तरफ, फासला है-इतना फासला—जैसे आकाश में कोई तारा निकले | उत्तरायण, तब जो मृत्यु घटित होती है, वह और ही तरह की मृत्यु और उस तारे की छाया आपके घर में भरे हुए गंदे डबरे में बन जाए। | है। और इन दोनों की यात्राएं अलग हो जाती हैं। जब जीव-ऊर्जा उस तारे की छाया में और उस तारे में जितना फासला है, इतना ही | नीचे की तरफ उतरती है, जो कि हमारी समस्त वासनाओं में उतरती फासला है। लेकिन फिर भी छाया तो है ही, रिफ्लेक्शन तो है ही। | है...। इसलिए कामवासना हमारी सबसे केंद्रीय वासना है, क्योंकि तो जब भी कोई अंतर-अनुभव में उतरता है, तो उसे प्रतीक | | सर्वाधिक जीव-ऊर्जा को हमारी कामवासना का केंद्र ही नीचे की चुनने पड़ते हैं, जो प्रतीक बाहर के जगत से लिए गए हों। उन | तरफ, अधोगमन की तरफ भेजता है। प्रतीकों के कारण बड़ी कठिनाई होती है। जैसे समस्त योग-शास्त्रों एक बहुत मजे की बात आपसे कहूं, जब तक आपका चित्त ने, योग-विधियों ने दो तरह के पथ, विशेषकर वैदिक युग ने दो | कामवासना से भरा रहता है, तब तक आपके पैर के तलवे सदा . तरह के पथ विभाजित किए हैं, जिनसे मनुष्य की चेतना यात्रा करती गरम रहेंगे। लेकिन जैसे ही आपकी काम ऊर्जा काम-केंद्र से नीचे है। तो पहले तो हम उन दो पथों का विभाजन समझ लें। की तरफ न बहकर, ऊपर की तरफ बहने लगेगी, ऊर्ध्वमुखी होगी, सूर्य जब भूमध्य रेखा के उत्तर में होता है बढ़ता हुआ, तो एक | वैसे ही आपके पैर ठंडे होने शुरू हो जाएंगे। और आपका सिर उत्तर का पथ है; और जब सूर्य भूमध्य रेखा से दक्षिण की तरफ नीचे | गरम होना शुरू हो जाएगा। बुद्ध जैसे योगी के पैर बिलकुल ही उतरता होता है, तो दूसरा दक्षिण का पथ है। शीतल, आइस कूल, बिलकुल शीतल, बर्फीले शीतल होते हैं। __ अगर हम आदमी को भी ठीक पृथ्वी की तरह दो हिस्सों में बांट बहुत पुराने दिनों से गुरु के चरणों में सिर रखने का बहुत लें, तो सेक्स सेंटर जो है आदमी का, जो कामवासना का केंद्र है, | | महत्वपूर्ण उपयोग था। वह डायग्नोसिस थी, जैसे कि चिकित्सक उसके नीचे का हिस्सा दक्षिण मान लें, और उस केंद्र के ऊपर का | नाड़ी पर किसी के हाथ रख ले। गुरु के चरणों में सिर रखकर शिष्य हिस्सा उत्तर मान लें, तो मनुष्य के भीतर एक अग्नि है-उसकी मैं | | पहचान लेता था कि अभी उत्तरायण यह व्यक्ति हुआ या नहीं! और बात करूंगा-वही मनुष्य की ऊर्जा है, बायो-एनर्जी, जिसको अब गुरु अपना हाथ उसके सिर पर रखकर पहचान लेता था कि 131
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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