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________________ * गीता दर्शन भाग-42 कितना समय दे सकते हैं? उन्होंने कहा, ज्यादा समय तो मेरे पास है | लेकिन अगर आखिरी क्षण में धर्म की वासना, मोक्ष की वासना, नहीं। बयासी साल का हूं। सालभर में हो जाए, छः महीने में हो जाए! पुनर्जन्म न हो, ऐसी वासना भी बनी रही, तो चाहे कितना ही योग मैंने कहा, दो-चार दिन में हो जाए, तो क्या खयाल है? चित्त साधा हो, कितने ही आसन किए हों, कितना ही शीर्षासन लगाया उनका बड़ा प्रफुल्लित हो गया। कहने लगे, फिर तो कहना ही क्या! | हो, कितने ही घंटे सिद्धासन में बैठे हों, चाहे कुछ भी किया हो, और मैंने कहा, अगर अभी इसी क्षण हो जाए? तब उन्हें थोड़ा शक कितने ही लाख दफे राम-राम लिखा हो, कोई अंतर नहीं पड़ेगा। हुआ। तब थोड़ा शक हुआ, क्योंकि इसी क्षण का भरोसा तो किसी फिर वापस लौट आएंगे। को भी नहीं है। नहीं, उन्होंने कहा, इतनी जल्दी क्या! दो-चार दिन - हां, इतना अंतर पड़ेगा कि शायद यह जो शुभ वासना है मोक्ष में भी हो जाए। की, प्रभु-मिलन की, वासना तो वासना ही है, शुभ है। कम से कम इस क्षण का भरोसा तो किसी को नहीं है। और मैं आपसे कहता | धन पाने की नहीं; मोक्ष में ही जाने की है, कम से कम वेश्यागृह में हं, हो सकता है तो इस क्षण में; नहीं तो, न चार दिन, न चार वर्ष, जाने की नहीं है; शुभ है, शुक्ल है वासना, तो शायद अगले जन्म न चार जन्म, कुछ भी काफी नहीं है। अगर यही क्षण काफी नहीं में यह भी संभावना बन जाए कि यह शुक्ल और शुभ वासना को है, तो फिर सारा समय का विस्तार भी नाकाफी है। भी छोड़ने की क्षमता आ जाए। अब ये मित्र हैं, ये अगर संन्यास भी लेना चाहते हैं, तो बड़ी लेकिन ऐसा योगी वापस लौट आएगा। जिसने योग साधा हो वासना से प्रेरित होकर। बड़ी गहन वासना है। पर मैं कहता हूं, कोई | | किसी वासना से, वह वापस लौट आएगा। क्योंकि वह उस हर्ज नहीं। वासना से ही सही, कूदो। शायद कूदने में ही खयाल आ काल-क्षण को उपलब्ध नहीं होता, जहां से वापसी नहीं है। जाए, कि कूदे जिस जगह, वह जगह अगर मंदिर भी थी, तो हम | उन दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति है, सारी गंदगी को साथ लेकर कूद पड़े। शायद उस मंदिर की पवित्रता | | दिन है तथा शुक्ल पक्ष है और उत्तरायण के छः माह हैं, उस मार्ग के कारण इस गंदगी को बाहर फेंक आने की मंशा हो जाए। या | में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। शायद छलांग में स्मरण आए कि छलांग भी ली, तो बड़ी अधूरी। | दो मार्ग, उत्तरायण और दक्षिणायण, दो मार्गों की चर्चा कृष्ण एक टांग बंधी हुई है पीछे; वासना के जगत से पूरी की पूरी बंधी है। | करेंगे। इस पहले सूत्र में पहले मार्ग की चर्चा है। यह चर्चा अति. इन मित्र को कोई पूछे, वृद्धजन को, कि पक्का किए देते हैं, | सूक्ष्म है और इसमें जिन प्रतीकों का प्रयोग हुआ है, उन प्रतीकों के अगले जन्म में धन की भी कोई तकलीफ न होगी और शरीर का कोई | कारण इस सूत्र को गीता के, करीब-करीब नहीं समझा जा सका है। कष्ट न आएगा, फिर क्या इरादा है? तो मेरी अपनी समझ यह है कि | इस सूत्र पर प्रवेश करने के पहले दो-तीन बातें खयाल में ले लें। ये कहेंगे, तो फिर एक दफा और कोशिश कर ली जाए; रहने दें! ___ एक तो जितने ही अंतर्जगत की गहन बात हो, उतने ही हमें अगर जन्म से भी आप बचना चाहते हैं, तो किसलिए बचना | | प्रतीक चुनने पड़ते हैं। बात सीधी नहीं कही जा सकती। बात सीधे चाहते हैं? इसीलिए कि दुख न हो। तो आप जन्म से नहीं बचना | | कहने का उपाय नहीं है, क्योंकि बात कुछ ऐसी है, और ऐसी चाहते हैं, सिर्फ दुख से बचना चाहते हैं। और अगर कोई भरोसा | | मिठास की तरह भीतरी है, और इतनी गहन अनुभव की है कि शब्द दिला दे कि हम बिना दुख का जन्म दे देते हैं, तो आप पहले होंगे | में रखते ही हमें प्रतीक चुनने पड़ते हैं। सीधा कहने का उपाय नहीं कतार में। और भीड़ में बड़ी जल्दी मचाएंगे कि क्यू में मुझे आगे | है। जैसे आपके भीतर जब पहली बार आनंद घटित होगा और आने दो। आपसे कोई पूछे कि वह आनंद कैसा था, तो आपको कुछ न कुछ नहीं, मुक्त तो वही होता है, जिसे अगर कोई वायदा करता हो | | प्रतीक खोजने पड़ेंगे, जो बिलकुल अधूरे होंगे, छूते भी नहीं होंगे कि जीवन सुख ही सुख की शय्या होगी, फूल ही फूल होंगे जीवन | सत्य को। लेकिन फिर कोई उपाय नहीं है। में, फिर भी वह कहता है, होंगे, लेकिन सुख भी नहीं चाहिए। ध्यान में जो लोग गहरे उतरते हैं, यदि उन्हें संभोग का अनुभव असल में चाह ही नहीं चाहिए। ऐसे काल-क्षण में, जब कोई भी है, जो कि बहुत कम लोगों को है। और जब मैं कहता हूं, बहुत चाह नहीं है, जो शरीर से छूटता है, उसकी यात्रा परमधाम की तरफ कम लोगों को है, तो मेरा अर्थ यह है कि अधिक लोगों को केवल हो जाती है। | वीर्य-स्खलन का अनुभव है, संभोग का अनुभव नहीं है। लेकिन
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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