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________________ * जगत एक परिवार है * स्वीकार करते हैं। उनकी चेतना भी गहन रूप में व्यवस्था को | क्योंकि हमारे प्राणों की गहराई से व्यवस्था की मांग है। इस मांग अस्वीकार नहीं कर पाती। अव्यवस्था से वे भी राजी नहीं हो पाते हैं। का ही परिणाम ईश्वर की धारणा है। अब तक ऐसा कोई भी जगत में व्यक्ति नहीं हुआ है, जो ईश्वर की धारणा का अर्थ है कि जगत एक व्यवस्था है, एक अव्यवस्था के लिए अंतर्मन से राजी हो। अगर आप ऐसे व्यक्ति | कास्मास है, केआस नहीं। यहां जो भी हो रहा है, वह प्रयोजनपूर्वक । को भी जाकर छुरा उसके हाथ में भोंक दें, तो वह भी पूछेगा, क्यों? है। और यहां जो भी हो रहा है, उसका कोई गंतव्य है। और यहां तुमने छुरा मुझे क्यों मार दिया है? जो भी हो रहा है, उसके पीछे कोई सुनियोजित हाथ हैं। यहां जो भी लेकिन अगर जगत अराजक है, तो क्यों का प्रश्न अनुचित है। दिखाई पड़ रहा है, वह कितना ही सांयोगिक हो, सांयोगिक नहीं यहां घटनाएं घटती हैं, बिना किसी कारण के। तो मैं कह सकता हूं है, कार्य और कारण से आबद्ध है। कि यह संयोग है कि मेरे हाथ में छुरा है, तुम्हारा हाथ करीब है। | - ईश्वर की धारणा का जो मौलिक आधार है, वह पहला आधार और यह संयोग है कि मेरा हाथ तुम्हारे हाथ में छुरे को भोंकता है। यही है कि मनुष्य कुछ भी करे, विचार कुछ भी करे, विचार इसमें कोई कारण नहीं है। लेकिन अराजक आदमी भी पूछेगा कि | व्यवस्था के पार नहीं जा सकता है। विचार स्वयं ही व्यवस्था का छुरा मुझे क्यों मारा गया है? वह भी जानना चाहता है कारण। | | आधार है। विचार व्यवस्था की मांग है। सोचने का अर्थ ही है कि मैं आप से यह कह रहा हूं कि मनुष्य की चेतना ही ऐसी है कि प्रयोजन है, अन्यथा सोचने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। समझाने वह व्यवस्था को अस्वीकार नहीं कर सकती है। विचार में भी का अर्थ है. क्योंकि कोई प्रयोजन है। अस्वीकार करे, तो भी अव्यवस्था के लिए भी व्यवस्था निर्मित | और हम जहां भी देखें, वहां जीवन में व्यवस्था के चरण सब करेगी। अगर कोई आदमी यह भी कहे कि जगत नहीं है, तो इसे | | जगह दिखाई पड़ते हैं। छोटे-से परमाणु से लेकर आकाश में घूमते भी वह सिद्ध करने में लग जाता है। अगर वह यह कहे कि यह सब | हुए विराट महाकाय ताराओं की तरफ हम आंख उठाएं, चाहे झूठ है, जो है, तो भी वह इसे सिद्ध और सत्य करने में लग जाता | क्षुद्रतम में और चाहे विराटतम में, एक गहन, निबिड़ योजना है। इससे एक भीतरी बात की खबर मिलती है। परिलक्षित होती है। पश्चिम में एक विचारक हुआ, बर्कले। बर्कले कहता है कि जगत | एडिंगटन ने अपने मरने के पहले लिखा है-और एडिंगटन तो एक स्वप्न है, एक विचार; बाहर कोई जगत नहीं है। लेकिन वह भी विशुद्ध वैज्ञानिक चिंतक था—उसने लिखा है कि जब मैंने अपना लोगों को समझाने जाता है कि मैं जो कहता हूं, वह ठीक है। विचार शुरू किया जगत के बाबत, तो मैं सोचता था, जगत वह किन्हें समझाने जाता है? अपने ही विचारों को? अपने ही | वस्तुओं का एक समूह है। लेकिन जीवनभर की निरंतर खोज के सपनों को? अपने ही सपने के पात्रों को? और जब कोई उसको | बाद अब मुझे ऐसा लगता है, जगत वस्तुओं का समूह नहीं, विचार मानकर राजी हो जाता है और ताली बजाता है, तो वह प्रसन्न होता | की एक व्यवस्था है। एडिंगटन ने कहा है कि नाउ दि वर्ल्ड लुक्स है। अपने ही सपनों के पात्रों से सुनी गई तालियों से प्रसन्न होता है? | | मोर लाइक ए थाट दैन लाइक ए थिंग। और जब कोई राजी नहीं होता है और इनकार करता है, तो वह दुखी | | वस्तु में और विचार में क्या फर्क है? वस्तु अलग-अलग और पीड़ित होता है। टुकड़ों में भी हो सकती है, लेकिन विचार सदा एक संयोजना में वह कहता भला हो कि जगत मेरा विचार है, लेकिन उसकी होता है। विचार का एक पैटर्न है। विचार के भी भीतर एक चेतना स्वयं भी इसे नहीं मान पाती है। | आर्गेनिक यूनिटी, एक सावयव एकता है। इसे थोड़ा खयाल में ले आप क्या कहते हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है; आपका | | लें, तो इस सूत्र को समझना आसान हो जाए। अंतर्चित्त क्या स्वीकार करता है, वह महत्वपूर्ण है। ___ यह मेरा हाथ है। ये मेरे हाथ की पांच अंगुलियां हैं। यह मेरा पैर तो एक द्वार आपको कहूं, और वह पहला द्वार यह है कि मनुष्य है। यह मेरा सिर है। यह मेरा शरीर है। अगर ये सब वस्तुएं हैं, तो की चेतना स्वभावतः व्यवस्था को स्वीकार करती है। इस जगत में इनके भीतर कोई ऐक्य नहीं हो सकता। लेकिन मेरे मन में विचार अगर कोई व्यवस्था है, तो ही हम तृप्त हो सकते हैं। अगर इस उठता है, और मेरा हाथ उस विचार को पूरा करने के लिए उठ जाता जगत में कोई व्यवस्था नहीं है, तो हम तृप्त नहीं हो सकते हैं; है। मेरे मन में कामना उठती है, और मेरे पैर चलने को तत्पर हो 199
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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