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________________ गीता दर्शन भाग-4 सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् । कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ।। ७ ।। प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ।। ८ ।। न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय । उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु । । ९ । । और हे अर्जुन, कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात मेरी प्रकृति में लय होते हैं। और कल्प के आदि में उनको मैं फिर रचता हूं। अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के वश से परतंत्र हुए इस संपूर्ण भूत समुदाय को बारंबार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूं। हे अर्जुन, उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश स्थित हुए मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बांधते हैं। इ स सूत्र के निकट पहुंचने लिए हम दो-चार मार्गों | से यात्रा करें, तो आसान होगा। यह सूत्र मनुष्य के चिंतन में जो मूलभूत प्रश्न है, उससे संबंधित है। आदमी ने निरंतर जानना चाहा है, कैसे यह सृष्टि निर्मित होती है ? कैसे विलीन होती है ? कौन इसे बनाता? कौन इसे सम्हालता ? किस में यह विलीन होती है ? कोई है इसे बनाने वाला या नहीं है? इस प्रकृति का कोई प्रारंभ है, कोई अंत है? या कोई प्रारंभ नहीं, कोई अंत नहीं? इस प्रकृति में कोई प्रयोजन है, कोई लक्ष्य है, जिसे पाने के लिए सारा अस्तित्व आतुर है, या यह लक्ष्यहीन एक अराजकता है? यह जगत एक व्यवस्था है या एक अराजक संयोग है ? और इस प्रश्न के उत्तर पर जीवन का बहुत कुछ निर्भर करता है, क्योंकि जैसा उत्तर हम स्वीकार कर लेंगे, हमारे जीवन की दशा भी वही हो जाएगी। ऐसे विचारक रहे हैं, जो मानते हैं कि जीवन एक संयोग, एक एक्सिडेंट मात्र है। कोई व्यवस्था नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है, कहीं पहुंचना नहीं है, कोई कारण भी नहीं है; सिर्फ जीवन एक दुर्घटना है। ऐसी दृष्टि को जो मानेगा, वह जो कह रहा है, वह सच हो या न हो, उसका जीवन जरूर एक दुर्घटना हो जाएगा। वह जो कह रहा है, वह सारे जगत को प्रभावित नहीं करेगा, लेकिन उसके अपने जीवन को निश्चित ही प्रभावित करेगा । यदि मुझे ऐसा लगता हो कि यह सारा विस्तार, यह पूरा ब्रह्मांड एक संयोग मात्र है, तो मेरे अपने जीवन का केंद्र भी बिखर जाएगा। तब मेरे जीवन की सारी घटनाएं भी संयोग मात्र हो जाएंगी। फिर मैं बुरा करूं या भला, मैं जीऊं या मरूं, मैं किसी की हत्या करूं या किसी पर दया करूं, इन सब बातों के पीछे कोई भी प्रयोजन, कोई सूत्रबद्धता नहीं रह जाएगी। ऐसा जिन्होंने कहा है, उन्होंने जगत को अराजक बनाने में सुविधा दी है। और कठिनाई यह है कि चाहे कोई विचारक कितना ही कहे कि जगत अराजक है, खुद उसकी चेतना इस बात को स्वीकार नहीं कर पाती। क्योंकि ऐसे विचारक जब अपना प्रस्ताव करते हैं कि जगत अराजक है, तो इसे भी बहुत तर्कयुक्त ढंग से सिद्ध करते हैं। ऐसे विचारक भी जब यह कहते हैं कि जगत अराजक है, तो इसकी भी सुसंगत व्यवस्था निर्मित करते हैं। वे एक सिस्टम बनाते हैं। अगर आप उनका विरोध करेंगे, तो वे आपके विपरीत तर्क उपस्थित करेंगे। वे आपके तर्कों का खंडन करेंगे। वे अपने तर्कों का समर्थन करेंगे। 198 लेकिन उन्हें शायद खयाल नहीं आता कि अगर जगत एक अराजकता है, तो किसी को भी समझाने का कोई प्रयोजन नहीं है; और फिर न कोई सही है और न कोई गलत । अगर जगत एक अराजकता है, एक अनार्थी है, एक केआस है, तो फिर मैं आपको समझाऊं कि सही क्या है, तो मैं मूढ़ हूं। क्योंकि अराजकता में सही कुछ भी नहीं हो सकता है। सही और गलत व्यवस्था में होते हैं। फिर अगर मैं कहूं कि मैं ही सही हूं और आप गलत हैं, तो मैं अपनी ही बात का खंडन कर रहा हूं; क्योंकि सही और गलत किसी प्रयोजन से होते हैं। अगर मैं कहूं कि यह रास्ता गलत है, और साथ ही यह भी कहूं कि यह रास्ता कहीं पहुंचता नहीं है, तो मैं पागल हूं। क्योंकि अगर रास्ता कहीं भी नहीं पहुंचता है, तो रास्ता गलत और सही नहीं हो सकता। क्योंकि रास्ते का गलत और सही होना इस पर निर्भर होता है कि मंजिल मिलेगी या नहीं मिलेगी। अगर मंजिल है ही नहीं, तो सभी रास्ते समान हैं; न वे गलत हैं, न वे सही हैं। क्योंकि कोई रास्ता कहीं भी पहुंचता नहीं है, इसलिए जांचिएगा कैसे, मापिएगा कैसे कि कौन सही है, कौन गलत है ? जो कहते हैं कि जगत अराजक है, वे भी सिद्ध करना चाहते हैं कि हम जो कह रहे हैं, वह सत्य है । अराजकता में कोई सत्य और असत्य नहीं हो सकता । सत्य और असत्य व्यवस्था की बातें हैं। इसलिए मैं कहता हूं, जिन्होंने ऐसा कहा है, वे भी व्यवस्था को
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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