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________________ * दैवी या आसुरी धारा * गई। और चांद-तारे हैं; कहां तक ऊपर जाइएगा? और कहीं ऊंचाई, | कुछ नहीं निकलता। और सार्थक कर्म से अभी निकलता है, यहीं भौतिक ऊंचाई, भीतरी ऊंचाई से कोई संबंध रखती है? निकलता है, कल की प्रतीक्षा नहीं करनी होती। अक्सर उलटा होता है। अक्सर यह होता है कि भीतरी ऊंचाई जैसा मैंने कहा, जब आप क्रोध करते हैं, तो आप भीतर जल से भरा हुआ आदमी बाहरी ऊंचाई की चिंता ही नहीं करता। क्योंकि जाते हैं। रास्ते पर चलते हुए एक अनजान बच्चे की तरफ देखकर इतना आश्वस्त होता है भीतरी ऊंचाई से कि बाहरी ऊंचाई से क्या | आप मुस्कुरा देते हैं, तो भीतर आप खिल जाते हैं। एक आदमी फर्क पड़ता है! इसलिए अक्सर अगर बाप से उसका बेटा कुर्सी पर | | रास्ते पर चला जा रहा है, उसका सामान गिर जाता है, आप उठाकर चढ़कर कहे कि मैं तुमसे बड़ा हो गया, तो बाप खुश होता है, और दे देते हैं और अपने रास्ते पर चले जाते हैं। यह कृत्य बहुत छोटा कहता है. बिलकल ठीक, जरूर बडे हो गए। अगर बाप से बेटा है. लेकिन भीतर बहत अर्थ रखता है। कत्य बिलकल छोटा है। कुश्ती लड़ता है, तो बाप चित जमीन पर लेट जाता है, बेटे को जीत | एक आदमी का छाता गिर गया है और आपने उठाकर दे दिया और जाने देता है। क्योंकि खुद की जीत इतनी सुनिश्चित है कि उसे सिद्ध | अपने रास्ते पर चले गए। कहीं कोई विराट कर्म नहीं हो गया है। करने की भी कोई जरूरत नहीं रह जाती। बेटे को हराने में भी क्या कोई अखबारों में इसकी खबर नहीं छपेगी। इतिहास में कोई अर्थ है? हारा ही हुआ है। लेखा-खोजा नहीं होगा। लेकिन अगर बाप कभी ऐसा मिल जाए और बहुत बाप मिल | लेकिन जो आदमी दूसरे के छाते के लिए झुक जाता है, उठाकर जाएंगे, जो छोटे-से बेटे को दबाकर उसकी छाती पर बैठ जाएंगे | हाथ में दे देता है और चल पड़ता है, इसके भीतर इसी वक्त कुछ कि मैं तेरा बाप हूं, तू मुझे हराने की कोशिश कर रहा है? हो गया। दूसरे के लिए इतना करने का जो सदभाव है, वह भीतर यह जो छाती पर बेटे की बैठा हुआ बाप है, यह हार गया। इसे | | आनंद को इसी क्षण जन्म दे जाता है-इसी क्षण; कल के लिए भरोसा ही नहीं है, बाप होने का भी भरोसा नहीं है। जो गुरु अपने नहीं रुकना पड़ेगा। शिष्य को हराने में लगा हो, वह हार गया। गुरु की तो गुरुता इसमें | लेकिन हम किसी का छाता भी इतनी आसानी से उठाकर नहीं है कि शिष्य अगर लड़ने आ जाए, तो वह हार जाए और कह दे कि | दे सकते। छाता उठाकर हम खड़े होकर देखेंगे कि धन्यवाद देता है बैठ जाओ मेरी छाती पर; जीत गए तुम। या नहीं। तब हमने व्यर्थ आशा शुरू कर दी। और हम चूक गए जितना आश्वासन हो अपने भीतर की स्थिति का, यथार्थ का, एक मौका, एक शुद्ध प्रेम के कृत्य का, ए प्योर एक्ट आफ लव। उतनी ही बाहर की बातें बेमानी हो जाती हैं। लेकिन हम जो कर्म | मौका चूक गए। हमने धन्यवाद में उसको भी बेच दिया। अपेक्षा ने कर रहे हैं, वे बाहर की बातों के लिए हैं। हम सफल भी हो जाएंगे, उसे भी नष्ट कर दिया। तब हम पाएंगे कि वृथा हुआ कर्म, वृथा हुई दौड़। सार्थक कर्म वह है, जो हमारी आत्मा से सहज फलित होता है . नेपोलियन भी मरते वक्त वैसा ही दीन और दरिद्र है, सिकंदर और जिस कर्म में अनिवार्य रूप से प्रेम मौजूद होता है। व्यर्थ कर्म भी मरते वक्त वैसा ही दीन और दरिद्र है, जैसा कोई बड़े से बड़ा वह है, जो हानिकर है, और जिसमें अनिवार्य रूप से क्रोध मौजूद भिखारी हो सकता है। रहता है; या अहंकार मौजूद रहता है; या ईर्ष्या मौजूद रहती है। वे यह सारे जीवन की दौड़ का क्या हुआ? क्या है निष्पत्ति? यह सब एक ही बीमारी के अलग-अलग नाम हैं। इतना कर्म, इतने विराट कर्म का आयोजन, फल क्या है? इतनी सार्थक कर्म अगर हमारे जीवन में बढ़ जाएं, तो हमें कल के दौड़-धूप, पहुंचना कहां होता है? पसीना बहुत बह जाता है, हाथ | | लिए आशा नहीं रखनी पड़ती, आज ही हम धनी हो जाते हैं। लेकिन तो कुछ आता नहीं है! सार्थक कर्म को पहचानने का क्या रास्ता है? एक ही रास्ता है, जो कृष्ण इसे वृथा कर्म कहते हैं। कृष्ण कहते हैं, यह कर्म व्यर्थ है। | कर्म इसी क्षण सारे प्राण को आनंद से भर जाए-इसी क्षण। मूढजन व्यर्थ कर्म करते रहते हैं। और ध्यान रहे, इसी क्षण केवल वे ही कृत्य आपके प्राण को सार्थक कर्म क्या है? सार्थक कर्म का अर्थ है, व्यर्थ कर्म से | आनंद से भर सकते हैं, जिन्हें पुराने धर्मशास्त्रों में पुण्य कहा है। कितना ही हम कुछ करें, कभी कुछ नहीं निकलता; और सार्थक | पाप का अर्थ है, वृथा कर्म, जिससे कभी कोई निष्पत्ति न होगी। कर्म से अभी निकलता है और यहीं निकलता है। व्यर्थ कर्म से कभी पुण्य का अर्थ है, ऐसा कर्म, जो अभी आनंद से भर जाता है। 233
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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