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गीता दर्शन भाग - 4*
लेकिन हम ऐसे बेईमान हैं और ऐसे चालाक हैं कि हम पुण्य भी वृथा कर्म की कोटि में बना लिए हैं, रख दिए हैं। हम अगर पुण्य भी करते हैं, तो इसलिए कि आगे कुछ मिले। एक आदमी अगर एक पैसा भी दान करता है, तो वह पक्का कर लेता है कि इसके कितने गुना ज्यादा मुझे स्वर्ग में मिलेगा।
व्यर्थ हो गया। पुण्य का शुद्ध नृत्य, किसी आदमी को एक पैसा देने का यह छोटा-सा कृत्य भी बहुत बड़ा हो सकता था, अगर इसके पीछे कोई मांग न होती, इसके पीछे अगर कोई आशा न होती, कोई अपेक्षा न होती। सिर्फ इस घड़ी में एक आदमी पीड़ा में था और मैंने, चूंकि मेरे पास था, दे दिया था। इससे ज्यादा इसमें कुछ भी न होता, तो यह पुण्य का कृत्य था और एक फूल की तरह मेरे जीवन में खिल जाता और इसकी सुगंध कभी भी समाप्त न होती। और यह फूल कभी भी मुर्झाता नहीं। और यह मेरे प्राणों की अनिवार्य संपत्ति हो जाती।
धन से प्राण नहीं भरे जा सकते, लेकिन ऐसे फूल इकट्ठे होते चले जाएं, तो प्राण भर जाते हैं। और फुलफिलमेंट, एक भरापन अनुभव होने लगता है।
लेकिन मैं चूक गया। मैंने पहले पक्का कर लिया कि यह एक पैसा जो मैं दे रहा हूं, इसका कितने गुना मुझे मिलेगा। मैंने इसको भी भविष्य में खींच दिया। मैंने इसे भी वासना बना दिया। मैंने इसमें भी भविष्य को निर्मित कर लिया और आशा निर्मित कर ली। अब मैं दुख पाऊंगा। यह क्षण भी मैंने खोया, यह पैसा भी मैंने खोया, और अब यह भविष्य मुझे दुख देगा। क्योंकि कोई स्वर्ग इसके उत्तर में मिलने वाला नहीं है। स्वर्ग इतना सस्ता नहीं है।
पुण्य से स्वर्ग नहीं मिलता; पुण्य स्वयं स्वर्ग है। तो पुण्यों के जोड़ से स्वर्ग नहीं मिलता ; पुण्य में होना ही स्वर्ग में होना है। पुण्य एटामिक एक्ट का नाम है; एक-एक आणविक कृत्य । बस, मुझे आनंद था, बात समाप्त हो गई। इसके आर-पार नहीं देखना है । लेकिन हम हमेशा आशा में जीते हैं। मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक टर्किश स्नानगृह में स्नान करने गया। यात्रा से आया था, फटे-पुराने उसके कपड़े थे, धूल-धवास से भरा था। शक्ल पर भी धूल थी, लंबी यात्रा की थकान थी, दीन-हीन उसके कपड़े थे। तो टर्किश बाथ के सेवकों ने समझा कि कोई गरीब आदमी है।
स्वभावतः, जहां आशा में आदमी जीता है, वहां अमीर की सेवा की जा सकती है, गरीब की सेवा नहीं की जा सकती । होना तो
उलटा चाहिए कि गरीब की सेवा हो; क्योंकि वह सेवा की ज्यादा | उसे जरूरत है । अमीर को उतनी जरूरत नहीं है; उसे सेवा मिलती ही रही होगी। लेकिन आशा का जो जगत है...।
नौकर-चाकरों ने उस पर कोई ध्यान ही न दिया । फटी-पुरानी तौलिया उसे दे दी, क्योंकि पुरस्कार की कोई संभावना न थी । उपयोग में लाया हुआ साबुन उसे दे दिया। पानी की भी किसी ने चिंता नहीं की कि गरम है कि ठंडा है। मालिश करने वाले ने भी ऐसे ही हाथ फेरा, जैसे जिंदा आदमी पर हाथ न फेरता हो।
नसरुद्दीन सब देखता रहा । स्नान करके बाहर निकला। कपड़े पहने । किसी नौकर को आशा ही नहीं थी कि इससे कुछ टिप भी मिलेगी, कोई पुरस्कार भी होगा। लेकिन उसने अपने खीसे से उस देश की जो सबसे कीमती स्वर्णमुद्रा थी, वह बाहर निकाली। प्रत्येक नौकर को एक - एक स्वर्णमुद्रा दी, और अपने रास्ते पर चल पड़ा।
अवाक रह गए नौकर। छाती पीट ली दुख से दुख से कह रहा हूं! छाती पीट ली दुख से । क्योंकि अगर इसकी सेवा ठीक से की होती, तो आज पता नहीं क्या हो जाता ! स्वर्णमुद्रा कभी किसी ने | नहीं दी थी। नवाब भी वहां से गुजरे थे, वजीर भी वहां से गुजरे थे। | एक-एक नौकर को एक-एक स्वर्णमुद्रा किसी ने कभी भेंट न दी थी। और इतनी सेवा की थी। और यह आदमी सब को मात कर गया। छाती पर सांप लोट गया। उस रात नौकर सो नहीं सके। | बार-बार यही खयाल आया, बड़ी भूल हो गई। अगर ठीक से सेवा की होती - सेवा तो की ही नहीं उस आदमी की— अगर ठीक से सेवा की होती, तो पता नहीं क्या दे जाता !
मुल्ला नसरुद्दीन दूसरे दिन फिर उपस्थित हुआ । और भी | फटे-पुराने कपड़े थे, और भी धूल-धंवास से भरा था। लेकिन ऐसे | उसका स्वागत हुआ, जैसे सम्राट का हो। जो श्रेष्ठतम तेल था उनके | पास, निकाला गया। जो श्रेष्ठतम साबुन थी, वह आई। नए ताजे | तौलिए आए। गरम पानी आया। घंटों उसकी सेवा हुई। घंटों उसे | नहलाया गया। वह शांत, जैसे कल नहाता रहा, वैसे ही नहाता रहा। जाते वक्त, जब जाने लगा, अपने खीसे में हाथ डाला। नौकर सब हाथ फैलाकर आशा में खड़े हो गए। जो उस देश का सबसे छोटा पैसा था, वह उसने एक-एक पैसा उनको भेंट दिया !
छाती पर पत्थर पड़ गया। वे सब चिल्लाने लगे कि तुम आदमी पागल तो नहीं हो! यह तुम क्या कर रहे हो ? कल जब हमने कुछ भी नहीं किया, तुमने स्वर्णमुद्राएं दीं। और आज जब हमने सब कुछ | किया, तो ये पैसे तुम दे रहे हो ?
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