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________________ *गीता दर्शन भाग-42 चाहे हारो, हार निश्चित है। सफलता संभव ही नहीं है। तो दुनिया | | लेना-देना है? न मैंने उसे गाली देने को उकसाया, न मैंने उसे प्रेरित में जो लोग बहुत यश पा लेते हैं, बड़ी पीड़ा से भर जाते हैं। किया। मेरा कोई संबंध ही नहीं है। मैं असंबंधित हूं। मैंने बहुत जिंदगीभर कोशिश की यश को कमाने के लिए। अखबारों की | | समय पहले दूसरों की गलतियों के लिए अपने को सजा देना बंद कटिंग काटकर घर में रख लेते हैं। फाइल बना लेते हैं। फिर कोई | | कर दिया है। क्योंकि क्रोध मैं करूं, जलूंगा मैं, आग मेरे भीतर पूछता ही नहीं। फिर एक वक्त आता है कि सब जान लेते हैं। अब उठेगी। रोआं-रोआं मेरा झुलस जाएगा। प्राण मेरे कंप उठेंगे। बात समाप्त हो गई। भीतर कुछ घटित नहीं होता। भीतर कुछ घटित | रक्तचाप मेरा बढ़ेगा। रात मुझे नींद नहीं आएगी। और यह आदमी, नहीं होता। | हो सकता है, गाली देकर मजे से सो जाए। इसने अपना काम पूरा इसलिए बहुत प्रतिष्ठित लोग भीतर बहुत अप्रतिष्ठा में मरते हैं। कर लिया। बहुत यशस्वी लोग भीतर बड़ी हीनता के बोध से भर जाते हैं; बड़ी वृथा कर्म का अर्थ है, जिससे सिवाय हानि के और कुछ भी नहीं इनफीरिआरिटी पकड़ लेती है। सब जानते हैं उन्हें, वे खुद ही अपने | | होता, लेकिन फिर भी हम किए चले जाते हैं। क्यों किए चले जाते को नहीं जानते हैं! सब पहचानते हैं उन्हें, खुद ही वे अपने को नहीं हैं? एक यांत्रिक आदत के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है। एक पहचानते हैं! सारी दुनिया उन्हें जान लेती है, और वे अपने से | मूर्छा, एक निद्रा पकड़े हुए है, और किए चले जाते हैं। कल भी अपरिचित खड़े हैं! पीड़ा पैदा होगी। वृथा आशा! | किया था, आज भी किया है। सौ में निन्यानबे मौके हैं कि कल भी तो कृष्ण कहते हैं, मूढ़ता का पहला लक्षण, वृथा आशा। | करेंगे। जीवनभर-अगर आप अपने वृथा कर्मों का अनुपात जोड़ें, वृथा कर्म। ऐसे कर्म हैं, जो वृथा हैं, लेकिन हम किए चले जाते | | तो आपको पता चलेगा कि आपका पूरा जीवन वृथा कर्मों का एक हैं। वृथा कर्म से अर्थ है, ऐसा कर्म, जिससे सिवाय अहित के और | जोड़ है। कुछ भी नहीं होता। उदाहरण के लिए, आप जानते हैं, क्रोध वृथा | | अहंकार के लिए हम कितने कर्म करते रहते हैं! शायद हमारे कर्म है, लेकिन रोज किए चले जाते हैं। रोज करते हैं, रोज पछता जीवन का निन्यानबे प्रतिशत हिस्सा ऐसे कर्मों में संलग्न होता है, भी लेते हैं। रोज मन में तय भी कर लेते हैं कि अब नहीं करूंगा, | | जिससे हम अपने अहंकार को मजबूत करके दूसरों को दिखाना क्योंकि वृथापन समझ में आता है। लेकिन घड़ी दो घड़ी भी नहीं | चाहते हैं। चाहे हम कपड़े पहनते हों, चाहे हम मकान बनाते हों, बीत पाती है कि क्रोध फिर होता है। चाहे हम अपनी पत्नी को गहने से लाद देते हों, इन सबके पीछे, इस कर्म से आपको कोई फायदा नहीं होता। कभी किसी को नहीं | | इस सारी दौड़ के पीछे, एक मैं को प्रकट करने की चेष्टा चल रही हुआ। हो नहीं सकता है। क्योंकि क्रोध का अर्थ है, दूसरे की गलती | | है कि मैं हूं। और मैं साधारण नहीं हूं, नोबडी नहीं हूं, समबडी हूं। के लिए अपने को सजा देना। एक आदमी ने मझे गाली दे दी, यह इस मैं को मजबूत करने की कोशिश चल रही है। इस कोशिश गलती उसकी है। क्रोध मैं कर रहा हूं, सजा मैं अपने को दे रहा हूं। | में हम सारा जीवन गंवा देते हैं। एक आदमी बड़ा मकान बनाता है, वृथा कर्म का अर्थ है, गलती किसी और की, अपराधी कोई और, | | सिर्फ इसलिए कि दूसरों के मकानों को छोटा करके दिखा दे। समझ सजा कोई और भुगत रहा है। लीजिए, दिखा भी दिया। दूसरों के मकान छोटे भी हो गए, आपका बुद्ध को किसी ने गाली दी। बुद्ध ने सुन ली और अपने रास्ते | मकान बड़ा हो गया। होगा क्या? इससे क्या फलित होगा? पर चलने लगे। बुद्ध के भिक्षु आनंद ने कहा, इस आदमी ने गाली | यह छोटे बच्चे जैसी दौड़ है। छोटे बच्चे अक्सर अपने बाप के दी है, इसको कुछ उत्तर नहीं देते हैं? पास टेबल पर ऊपर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं, मैं आपसे बड़ा बुद्ध ने कहा, मैंने बहुत समय पहले से दूसरों की गलतियों के | हो गया। अगर आपके मकान के बड़े होने से आप पड़ोसी से बड़े लिए अपने को सजा देना बंद कर दिया है। दूसरे ने गलती की, | | होते हैं, तो इस बच्चे के तर्क में कोई गलती नहीं है। तब तो जो गाली देना उसका काम है, वह जाने। मैं कहां आता हूं? दे, न दे; | | छिपकली आपकी छत पर चल रही है, वह आपसे बड़ी हो गई! वजनी गाली दे, कम वजनी गाली दे; ताकत लगाए, न लगाए। | अगर मकान ऊंचा होने से आप बड़े हो सकते, तो बड़ा होना एकदम उसने मेहनत की। गांव से यात्रा करके रास्ते तक आया गाली देने; | आसान था। तब तो आकाश में पक्षी उड़ रहे हैं, बड़ी मुश्किल हो दे दी। उसने अपना काम पूरा किया, वह लौट गया। मेरा क्या गई। तब तो उनके ऊपर और बादल उड़ रहे हैं, बड़ी मुश्किल हो 1232
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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