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* दैवी या आसुरी धारा
होता है, उतनी भीतर की निर्धनता और प्रकट होने लगती है। इसलिए अमीर आदमी से ज्यादा गरीब आदमी जमीन पर खोजना मुश्किल है । इसलिए कई बार ऐसा हुआ कि अमीरों के बेटे - बुद्ध और महावीर — अमीरी को छोड़कर सड़क पर भीख मांगने चले गए।
यह बड़े मजे की बात है! जैसे ही किसी मुल्क में अमीरी बढ़ती है, वैसे ही उस मुल्क में एक भीतरी दीनता का भाव गहन हो जाता है। जब तक मुल्क गरीब होता है, तब तक भीतरी गरीबी का पता नहीं चलता । आज पश्चिम के सभी विचारक आंतरिक दरिद्रता की बात करते हैं। चाहे सार्त्र, चाहे कामू, चाहे हाइडेगर, वे सभी यह कहते हैं कि आदमी भीतर बिलकुल खाली है, एंप्टी है। इसको हम कैसे भरें ?
गरीब आदमी को पता चलता है, पेट खाली है; अमीर आदमी को पता चलता है, आत्मा खाली है। पेट को भरना बहुत कठिन नहीं है, आत्मा भरना बहुत कठिन है। असल में पेट खाली होता
आत्मा के खाली होने का खयाल ही नहीं उठ पाता। इसलिए असली गरीबी तो उस दिन शुरू होती है, जिस दिन यह बाहरी गरीबी मिटती है। उस दिन असली गरीबी शुरू होती है।
एक और गहरी गरीबी है। उस गरीबी को भरने का भाव मन में होता है। क्योंकि खाली कोई भी नहीं रहना चाहता । खाली होना पीड़ा है। भरापन चाहिए, एक फुलफिलमेंट चाहिए।
कैसे उसको भरें? आदमी धन इकट्ठा करने में लग जाता है। नियम की भूल हुई जा रही है। धन इकट्ठा हो जाएगा, भीतर भर नहीं सकता। क्योंकि बैंक बैलेंस किसी भी तरह इनर बैलेंस नहीं बन सकता। वह तिजोड़ी में भरता जाएगा। आत्मा में कैसे धन जाएगा ?
तो जो आदमी धन इकट्ठा करके सोचता हो कि मैं भरापन पा लूं, वह वृथा आशा कर रहा है। अगर असफल हुआ, तब तो असफल होगा ही; अगर सफल हुआ, तो भी असफल हो जाएगा।
इसको और ठीक से समझ लें।
अगर असफल हुआ, धन न कमा पाया, तब तो असफल होगा ही। क्योंकि जीवन दुख से भर जाएगा, फ्रस्ट्रेशन से, विषाद से, कि इतनी कोशिश की और धन भी न कमा पाया ! और अगर सफल हो गया, तो और भी बड़ी असफलता अनुभव होगी कि धन कमा लिया; पूरा जीवन गंवा दिया; और धन का ढेर लग गया; और मैं तो खाली का खाली हूं!
कठिनाई धन में नहीं है, बुराई धन में नहीं है। धन का कोई कसूर
नहीं है। आपको नियम की समझ नहीं है। आप उससे भरना चाहते
भीतर की कमी को, जो भीतर नहीं जा सकता! इसमें धन का क्या | कसूर है? फिर यह पागल धन को गालियां देना शुरू करेगा। दूसरी भूल शुरू हुई। फिर यह धन को गाली देना शुरू करेगा कि धन पाप है, कि धन बुरा है, कि धन मैं छूना नहीं चाहता । यह वही की वही भूल है। धन का इसमें कोई कसूर नहीं है। धन क्या कर सकता है ? धन बाहर की चीज है, बाहर के काम आ सकता है। उसे भीतर भरने की कोशिश आपकी भूल थी, धन का कोई कसूर न था । तीसरी तरफ से देखें।
एक आदमी यश पाना चाहता है, प्रतिष्ठा पाना चाहता है, अहंकार पाना चाहता है— जाना जाए कि वह कोई है ! एक अर्थ में ठीक है । खोज है यह भी आंतरिक । हर आदमी जानना चाहता है, वस्तुतः मैं कौन हूं। यह बिलकुल भीतरी भूख है। जानना चाहता है, | मैं कौन हूं। लेकिन गलत रास्ते पर जा सकता है । बजाय यह जानने के कि मैं कौन हूं, दूसरों को जनाने चल पड़े कि मैं कौन हूं। तो उपद्रव शुरू हो गया ! बजाय जानने के कि मैं कौन हूं, क्योंकि मैं | कौन हूं यह तो भीतरी खोज है, दूसरों को जनाने की कोशिश कि मैं कौन हूं... ।
जरा देखें, किसी राजनीतिज्ञ को आपका धक्का लग जाए, | वह आपकी तरफ आंख उठाकर कहेगा, जानते नहीं, मैं कौन हूं? | उसको खुद भी पता नहीं है। लेकिन जब वह कह रहा है, जानते नहीं, मैं कौन हूं, तो उसका मतलब है कि अखबार में रोज फोटो छपती है, फिर भी जानते नहीं, मैं कौन हूं! अभी न भी होऊं मिनिस्टर, तो कोई हर्ज नहीं। पहले मिनिस्टर रह चुका हूं, भूतपूर्व हूं, एक्स मिनिस्टर हूं! जानते नहीं, मैं कौन हूं!
आदमी जानना चाहता है स्वयं कि मैं कौन हूं; यह उसकी भीतरी भूख है। लेकिन नियम की भूल हो सकती है। और तब वह आदमी | दूसरों को जनाने निकल पड़ेगा कि मैं कौन हूं। जिंदगी बीत जाएगी | दूसरों को समझाते - समझाते कि मैं यह हूं, मैं यह हूं। और आखिर में वह पाएगा, अगर सफल हो गया, तो भी असफल हो जाएगा। आखिर में पाएगा, सबने जान लिया है कि मैं कौन हूं- प्रधानमंत्री हूं, कि राष्ट्रपति हूं, कि यह हूं या वह हूं और मुझे खुद तो अभी तक पता ही नहीं चला कि मैं कौन हूं। तब एक भारी विफलता हाथ लगेगी। अगर असफल हुआ, तो असफल होगा। अगर सफल हुआ, तो भी असफल हो जाएगा।
वृथा आशा का अर्थ है, सफलता संभव ही नहीं है। चाहे जीतो,
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