SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * गीता दर्शन भाग-4 भूल-चूक नहीं होनी चाहिए; गणित की पूरी व्यवस्था है। जब कोई । रामकृष्ण को पुजारी के पद पर रखा था दक्षिणेश्वर में, तो आठ भी उपासक सकाम वासना से भरकर पूजा में लगता है, तो दिन बाद ही ट्रस्टियों की कमेटी को रामकृष्ण को बुलाना पड़ा। रत्ती-रत्ती हिसाब रखता है; पूरी विधि का पालन करता है। और शिकायतें बहुत आईं कि रामकृष्ण को पूजा करने की विधि नहीं कृष्ण कहते हैं, अविधिपूर्वक! हालांकि वे खुद ही कह रहे हैं कि हे आती। रामकृष्ण से ज्यादा गहरा पुजारी खोजना मुश्किल है पूरे अर्जुन, यद्यपि श्रद्धा से युक्त हुए जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं मनुष्य के इतिहास में। लेकिन ट्रस्टियों की कमेटी ने, जो केवल को पूजते हैं, वे भी मेरे को ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजना चौदह रुपया महीना रामकृष्ण को तनख्वाह देते थे—निश्चित ही, वे अविधिपूर्वक है। मालिक थे—उन्होंने रामकृष्ण को बुला लिया अदालत में। ट्रस्टियों विधि तो उन्हें भी पता है। विधि की कोई कठिनाई नहीं है। | की अदालत बैठ गई। और उन्होंने कहा कि तुम्हें हमें निकालना एक-एक चरण विधि का ज्ञात है, और चरण पूरा किया जाता है। | पड़ेगा, क्योंकि पता चला है कि तुम्हें पूजा की विधि नहीं आती। लेकिन फिर भी कृष्ण अविधिपूर्वक कहते हैं! रामकृष्ण ने कहा, पूजा और विधि का संबंध क्या है? पूजा आती अविधिपूर्वक कहने का कारण है। परमात्मा के पास, सिर्फ पास | है, विधि की फिक्र क्या है? और विधि आती हो, पूजा न आती हो, होना ही पर्याप्त विधि है, और किसी विधि का अर्थ नहीं है। बाकी | तो विधि का करोगे क्या? सब विधियां स्वयं को दिए गए धोखे हैं। उसके पास होने की कला __ लेकिन ट्रस्टियों को समझ में नहीं आया। आने की बात भी न ही आ जाए, उसकी मौजूदगी को अनुभव करने का द्वार खुल जाए, थी। यह कोई बात हुई! शिकायत गहरी थी। ट्रस्टियों ने कहा कि तो पर्याप्त विधि हो गई। लेकिन विधि तो वे करते हैं! इतनी ही नहीं है; शिकायत थोड़ी ऐसी है कि अपराधपूर्ण है। खबर कृष्ण कहते हैं, अज्ञानपूर्वक। हमें मिली है कि फूल पहले तुम सूंघ लेते हो और फिर चढ़ाते हो! अज्ञान भी विधि कर सकता है, अक्सर करता है, करेगा ही; | और खबर हमें मिली है कि भोग पहले तुम लगा लेते हो, फिर और उसको कुछ उपाय भी नहीं होता। हम सारे लोग अज्ञानपूर्वक भगवान को लगाते हो! न मालूम कितनी विधियों को विकसित कर लिए हैं! बड़ा जटिल रामकृष्ण ने कहा, अपनी नौकरी सम्हालो; मैं तो ऐसे ही पूजा जाल निर्मित किया है। करूंगा। क्योंकि मेरी मां जब कुछ बनाती थी, तो पहले खुद चख बुद्ध को हम चलते देखते हैं, उठते देखते हैं, बैठते देखते लेती थी। अगर मेरे खाने योग्य ही न हो, तो मुझे नहीं देती थी। मैं हैं-हम विधि का निर्माण कर लेते हैं। हम सोचते हैं, अगर ऐसे | भगवान को बिना चखे नहीं लगा सकता हूं। अगर खाने योग्य न ही हम उठे, ऐसे ही हम चले, ऐसे ही हम बैठे, तो बुद्ध को जो हुआ | हो, तो फेंक दूंगा, फिर बनाऊंगा। लेकिन यह असंभव है कि मैं है, वह हमें भी हो जाएगा। | पहले उन्हें चढ़ा दूं और मुझे पता ही न हो कि मैं क्या चढ़ा रहा हूं! __ हम मीरा को नाचते देखते हैं, गीत गाते देखते हैं, आनंद से ___ अब यहां विधि तो पूरी टूट गई। निश्चित ही, फूल सूंघकर कैसे विभोर देखते हैं। हम सोचते हैं, मीरा ने जैसे कपड़े पहने, मीरा ने चढ़ाना! लेकिन रामकृष्ण कहते हैं, बिना सूंघे मैं चढ़ा ही नहीं जैसा तिलक लगाया, मीरा जिस मंदिर के सामने खड़ी है, मीरा ने सकता हूं। अगर फूल में सुगंध ही न हो? मुझे कैसे पता चले? जो कृष्ण की मूर्ति बनाई, मीरा का जो पूजा का ढंग है, अगर वही | | और मैं तो भगवान को वही चढ़ाऊंगा, जो मुझे प्रीतिकर हो। तो ढंग हमने भी पूरा-पूरा पाला, तो जो मीरा को मिला है, वह हमें भी | मुझे पहले पता लगा लेना होगा कि प्रीतिकर मुझे है या नहीं? मिल जाएगा! रामकृष्ण ने कहा, या तो मैं पूजा ऐसी ही करूंगा और या अपनी और यह हो सकता है कि हम मीरा की विधि का पूरा-पूरा | | नौकरी आप सम्हाल ले सकते हैं, क्योंकि नौकरी के लिए पूजा नहीं अनुगमन कर लें, लेकिन जो मीरा को मिला है, वह हमें इससे नहीं | छोड़ी जा सकती। मिल जाएगा। क्योंकि जो दिखाई पड़ रहा था, वह तो केवल ढांचा | | अब यह जो आदमी है, कृष्ण इसको कहेंगे, विधिपूर्वक है। था, आत्मा नहीं थी; जो नहीं दिखाई पड़ रही है—विधि, उपासना, | | हालांकि विधि सब टूट गई। लेकिन फिर भी इसकी विधि में एक निकट होने की क्षमता—वह ढांचा नहीं है। वह दिखाई नहीं पड़ता। | आत्मीयता है, और इसकी विधि में एक रस है, और इसकी विधि वह आंतरिक है। वह भीतरी है। में एक हार्दिक प्रेम है, और इसकी विधि में फूल महत्वपूर्ण नहीं | 306|
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy