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________________ *गीता दर्शन भाग-42 पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः । हैं, उससे हम मुक्त भी होना चाहेंगे। बंधन चाहे कितना ही स्वर्ण वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ।। १७ ।। का क्यों न हो, विद्रोह पैदा करेगा। गतिर्मा प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् । भारतीय मनीषा धर्म को एक बंधन नहीं मानती, धर्म को एक प्रभवः प्रलयः स्थान निधानं बीजमव्ययम् ।।१८।। | मुक्ति मानती है। धर्म एक ग्रंथि नहीं है, जिससे हम बंधे हैं; धर्म और हे अर्जुन! मैं ही इस संपूर्ण जगत का धाता अर्थात | एक स्वतंत्रता है, जिसमें हम मुक्त हो सकते हैं। धर्म शब्द का अर्थ धारण करने वाला, पिता, माता और पितामह हूं, है, जिसने हमें धारण किया है। उससे हम बंधे नहीं हैं, हम उससे और जानने योग्य पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद ही निष्पन्न हुए हैं। और यजुर्वेद भी मैं ही हूं। एक वृक्ष है। वृक्ष के नीचे उतरें, तो जड़ों का फैलाव है। वृक्ष और हे अर्जुन, प्राप्त होने योग्य गंतव्य तथा भरण-पोषण ऐसा भी सोच सकता है कि जमीन वह है, जिससे मैं बंधा हूं। और करने वाला, सबका स्वामी, सबका साक्षी, सबका वास इस सोचने में भी गलती न होगी। क्योंकि वृक्ष ऐसा देख सकता है स्थान और शरण लेने योग्य तथा हित करने वाला, कि यह जमीन ही है, जिसमें मेरी जड़ें उलझी हैं और जिससे मैं बंधा और उत्पत्ति और प्रलयरूप तथा सबका आधार, निधान हूं। वृक्ष जड़ों और जमीन के बीच के संबंध को बंधन की भांति भी अर्थात प्रलयकाल में सबका जिसमें लय होता है, देख सकता है। और वृक्ष इस भांति भी देख सकता है कि जमीन और अविनाशी, बीज कारण भी में ही हूं। मेरा बंधन नहीं है; यह जमीन ही है, जिस पर मैं सधा हूं। यह जड़ों और जमीन के बीच बंधन नहीं है, जड़ों और जमीन के बीच प्राणों का संबंध है। - से मार्ग हैं अनेक और मंजिल एक है, वैसे ही प्रभु के __ अगर वृक्ष ऐसा देखे कि जमीन से मैं बंधा हूं, तो जमीन से मुक्त UI रूप भी हैं अनेक, वह जो रूपायित हुआ है, वह एक | होने की कोशिश शुरू हो जाएगी। इस देखने से ही कोशिश शुरू है। ऐसा नहीं है कि उसे एक ही रूप में देखा जा सके! | | हो जाएगी। यह दृष्टि ही छुटकारे का प्रारंभ होगी। और अभागा कोई रूप की सीमा नहीं है। जो जिस रूप में खोजना चाहे, उसे | | होगा वह वृक्ष। क्योंकि जहां तक देखने का संबंध है, वहां तक तो खोज ले सकता है। सभी रूप उसके हैं। जो भी है, वही है। कोई हर्ज नहीं है कि वृक्ष समझे कि मैं जमीन से बंधा हूं, क्योंकि कृष्ण इस सूत्र में बहुत-से शब्दों का संकेत किए हैं। वे | आकाश में उड़ नहीं सकता, लेकिन जिस दिन वृक्ष इस बंधन से शब्द-संकेत समझने जैसे हैं; क्योंकि उन शब्द-संकेतों से ही | मुक्त होने की कोशिश करेगा, उस दिन वृक्ष अपने ही हाथों अपनी साधना का पथ भी विस्तीर्ण होता है। कहा है, अर्जुन, मैं ही इस | | आत्महत्या कर लेगा। क्योंकि जड़ें बंधन नहीं हैं, जीवन हैं। संपूर्ण जगत का धाता अर्थात धारण करने वाला हूं। धर्म का अर्थ है, जिसने हमें धारण किया है। वह बंधन नहीं है, धर्म शब्द से हम परिचित हैं। धर्म शब्द का अर्थ होता है, जो वह हमारे प्राणों का स्रोत है। जड़ें बंधन नहीं हैं, जड़े वृक्ष के प्राण धारण करे, जो धारण किए हुए है! धर्म शब्द से अर्थ रिलीजन नहीं | | हैं। और पृथ्वी ने उसे बांधा नहीं है, जीवन दिया है। सच तो यह है होता। धर्म शब्द से अर्थ मजहब भी नहीं होता। मजहब का अर्थ कि जड़ों के कारण ही वह आकाश में फैलने में समर्थ हुआ है। जड़ों होता है, पंथ, सेक्ट, संप्रदाय। रिलीजन शब्द का मौलिक अर्थ | में जो रस, जड़ों में जो प्राण, जो ऊर्जा उसे उपलब्ध हो रही है, वही होता है, जिससे हम बंधे हैं, रिलीगेर, जिससे हम बंधे हैं। लेकिन उसके पत्ते और फूल बनकर आकाश में खिली है। यह जो वृक्ष की यह बड़ी कीमती बात है कि भारत धर्म को इस भांति नहीं सोचता यात्रा है आकाश की तरफ उठने की, यह जो महत्वाकांक्षा है कि कि जिससे हम बंधे हैं, बल्कि इस भांति सोचता है कि जिस पर हम आकाश को छू लूं, यह जड़ों के ही आधार पर है। सधे हैं। और ध्यान रहे, जितनी जड़ें गहरी जाएंगी जमीन में, उतना ही बंधन शब्द अप्रीतिकर भी है, कुरूप भी है। शायद पश्चिम ने | वृक्ष ऊपर जाएगा आकाश में। अगर जड़ें जमीन के पूरे के पूरे प्राणों धर्म को एक बांधने वाली सीमा-रेखा की तरह देखा है, इसीलिए | में प्रविष्ट हो जाएं, तो वृक्ष आकाश को स्पर्श कर लेगा। जितनी पश्चिम ने धर्म से मुक्त होने की चेष्टा भी की है। जिससे हम बंधे होगी गहराई जड़ों की, उतनी ऊंचाई हो जाएगी वृक्ष की। जड़ें दुश्मन |258|
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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