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मैं ओंकार हूं *
नहीं हैं; और जड़ें ऊंचे उठने में बाधा भी नहीं हैं; और जड़ें आकाश में उड़ने में सहयोगी हैं, साथी हैं। उनके बिना वृक्ष बचेगा ही नहीं, आकाश में उड़ने का तो सवाल ही नहीं है।
भारतीय मनीषा कहती है कि धर्म है वह, जो हमें धारण किए है। इसमें एक और मजे की बात है कि अगर आपको बंधन में डाला जाए, तो आपकी जानकारी के बिना नहीं डाला जा सकता। और बंधन में डालने का तो अर्थ ही यह होगा कि पहले कभी आप बंधन के बाहर भी थे, और कभी बंधन में डाल दिए गए हैं, और कभी बंधन से फिर अलग भी हो सकते हैं।
यहां एक दूसरा सूत्र आप खयाल ले लें। भारतीय मनीषा की दृष्टि ऐसी है कि धर्म वह है, जिससे हम चाहें तो भी अलग नहीं हो सकते; कोई उपाय नहीं है। हम चाहें तो भी हम धर्म से अलग नहीं हो सकते, क्योंकि धर्म हमारे प्राणों का आधार है। धर्म से अलग होकर हम हो ही नहीं सकते, हमारा अस्तित्व भी नहीं होगा।
जैसे वृक्ष जमीन से अलग होकर नहीं हो सकता, और जैसे मछली सागर से अलग होकर नहीं हो सकती। क्योंकि सागर सिर्फ मछली के लिए माध्यम ही नहीं है, जिसमें वह होती है, वह उसका प्राण भी है। सागर ने उसे धारण भी किया है, जन्माया भी है, जिलाया भी है। सागर उसे लीन भी करेगा अपने में। सागर ही मछली के भीतर भी दौड़ रहा है। इसलिए सागर के बाहर आकर मछली को जीना असंभव है। थोड़ी-बहुत देर जी सकती है, जितनी देर तक, भीतर जो सागर था, वह सूख न जाए। थोड़ी-बहुत देर वृक्ष भी हरा रहेगा, जितनी देर तक जमीन से खींची गई रस-धार मौजूद रहेगी। फिर सूख जाएगा।
धर्म वह है, जिससे हम अलग नहीं हो सकते। वह हमारी आत्मा हैं। इसलिए धर्म की जो दूसरी बड़ी व्याख्या भारत ने की है, वह महावीर ने की है। हिंदुओं ने व्याख्या की है कि धर्म वह है, जो धारण किए है। महावीर ने व्याख्या की है कि धर्म वह है, जो हमारा स्वभाव है। बात एक ही है। क्योंकि स्वभाव ही हमें धारण किए हुए है; या जो हमें धारण किए हुए है, वही हमारा स्वभाव है; वही हमारा इनट्रिजिक नेचर है; वही हम हैं।
तो कृष्ण अपनी पहली परिभाषा देते हैं; वे कहते हैं, मैं धर्म हूं; मैं धाता हूं; मैं वह हूं, जो धारण किए है।
जो हमें धारण किए है, उसे हम भूल सकते हैं, उससे हम दूर नहीं हो सकते। जो धारण किए है, उसे हम भूल सकते हैं, उससे हम दूर नहीं हो सकते। उसका हम विस्मरण कर सकते हैं, उससे हम
विच्छिन्न नहीं हो सकते। उसे हम जन्मों-जन्मों तक याद न करें, यह हो सकता है, लेकिन हम क्षणभर को भी उससे भिन्न नहीं हो सकते।
इसलिए सारी दुनिया में धर्म को सीखने की भाषा में समझा गया है; धर्म भी एक लर्निंग है, एक शिक्षण है। भारत ने उसे इस भाषा में नहीं समझा। भारत के लिए धर्म शिक्षण नहीं है, पुनर्मरण है; रिमेंबरिंग है। हम सिर्फ भूल सकते हैं, खो नहीं सकते। और जो बहुत निकट होता है, उसे भूलना आसान है।
गुह्य
वृक्ष अगर अपनी जड़ों को भूल जाए, तो बहुत कठिन नहीं है। कई कारण हैं। पहला तो कारण यह है कि जड़ें छिपी होती हैं जमीन के भीतर। असल में जहां भी जन्म होता है, वहां गुह्य अंधकार चाहिए। चाहे मां के पेट में बच्चे का जन्म होता हो, तो भी | अंधकार चाहिए। और चाहे जड़ों में वृक्ष का जन्म होता हो, तो भी पृथ्वीका गुह्य अंधकार चाहिए। जहां भी जन्म होता है, वहां इतनी निजता चाहिए कि प्रकाश भी बाधा न डाले। वहां इतना मौन | चाहिए, इतनी शांति चाहिए कि प्रकाश की किरण भी आकर कंपन पैदा न करे ।
प्रकाश के साथ हलन चलन शुरू हो जाता है। अंधकार महाशांति है। और इसलिए हम अंधकार से डरते हैं, क्योंकि हम कोई भी शांति नहीं चाहते। जो भी शांति चाहेगा, वह अंधकार से नहीं डरेगा, अंधकार को प्रेम करने लगेगा। जो जितनी ज्यादा अशांति से भरा होगा, उतना अंधकार से डरेगा, भयभीत होगा । मैं ऐसे लोगों को जानता हूं, जो अंधकार में सो भी नहीं सकते ! रात को प्रकाश जलाकर ही सोएंगे। यह अशांति की आखिरी सीमा है।
जड़ें तो अंधकार में बड़ी होती हैं, इसलिए छिपी होती हैं। जो भी | महत्वपूर्ण है, वह गुप्त होता है। जो प्रकट होता है, वह महत्वपूर्ण नहीं है।
ध्यान रहे, जो भी महत्वपूर्ण है, वह सदा गुप्त होता है। जड़ें गुप्त हैं, वे महत्वपूर्ण हैं; उन्हें उघाड़ा नहीं जा सकता। शाखाएं उघड़ी हैं, जो उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं। हम एक वृक्ष की शाखाओं को काट दें, नई शाखाएं आ जाएंगी। एक पूरा वृक्ष गिर जाए, नए अंकुर निकल | आएंगे और नया वृक्ष निर्मित हो जाएगा। क्योंकि वह जो प्राण है, वह नीचे छिपा है। उस पर आघात भी नहीं पहुंचता है। लेकिन जड़ें | काट दें, फिर सारा वृक्ष कुम्हला जाएगा और मर जाएगा।
तो जहां जीवन का सूत्र है, उसे छिपाकर रखा है जीवन ने जड़ें | छिपी हैं; वृक्ष भूल सकता है। बहुत स्वाभाविक है कि वृक्ष को जड़ों की कोई याद न आए। फूल दिखाई पड़ें; शाखाएं दिखाई पड़ें।
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